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धर्म एवं दर्शन >> क्रोध

क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


उसने निर्णय किया कि समय आने पर मैं इससे बदला अवश्य लूँगा और वह समय-यापन हेतु वन में आश्रम बनाकर रहने लगा। कालकेतु नाम का राक्षस भी उसका मित्र बन गया था। इस राक्षस के दस पुत्रों का भी वध प्रतापभानु के द्वारा किया गया था। अत: कालकेतु भी प्रतिशोध की भावना से भरा हुआ था। वे दोनों इस बात को जानते थे कि प्रतापभानु सचमुच वैसा है नहीं जैसा कि वह बाहर से होने का दिखावा करता है। उन्होंने प्रतापभानु की इसी कमी का लाभ लेते हुए उसे ठगने की योजना बनायी।

प्रतापभानु एक बार विन्ध्याचल के गंभीर वन में शिकार करने के लिये गया। वह बड़ा अचूक निशानेवाला था। जिस पशु पर भी वह बाण चलाता, वह पशु बाण लगने से तत्काल ही गिर जाता, दिन भर प्रतापभानु पशुओं को मारता रहा और जब वापस लौटने लगा, उस समय कालकेतु राक्षस एक विशाल शूकर का रूप बनाकर उसके सामने आ गया। शूकर को देखकर प्रतापभानु आश्चर्य में भरकर सोचने लगा-  'आज तक मैंने असंख्य पशुओं का शिकार किया है, पर ऐसा विलक्षण पशु तो कभी दिखा ही नहीं, इसलिए इसे तो अवश्य ही मारूँगा। इसे मारने से तो मेरे निशानेबाजी की चारों ओर धूम मच जायगी। उसने बड़े उत्साह से निशाना साधा और बाण चलाया, पर शूकर बाण बचा गया। जीवन में पहली बार राजा का बाण निष्फल गया। इस विफलता से प्रतापभानु को क्रोध आ गया। मानो उसका असली रूप सामने आ गया। यदि सचमुच उसके जीवन से फलाकांक्षा मिट गयी होती, और समता आ गयी होती, तो आज वह यही सोचता कि 'तीर निशाने पर लग जाय तो ठीक और यदि न लगे तो ठीक'! पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह न तो 'सम' था और न ही निष्काम, वह तो बस! एक प्रदर्शन-प्रिय दंभी भर था।

आपने गीता में यह ध्यान दिया होगा कि भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते समय यह नहीं कहा कि 'तुम लड़ाई में जीतोगे, अपितु यह कहा कि अर्जुन! –

लाभालाभौ जयाजयौ। गीता-2

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