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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


गीता का उद्धरण देते हुए मंच से यह कहना तो बड़ा सरल है कि मनुप्य को जो भी कर्म करना चाहिये, वह फल की आकांक्षा को छोड़कर करना चाहिये पर यहृ सत्य व्यवहार में लाने में अत्यधिक कठिन है। व्यक्ति इस स्थिति तक पहुँच सकता है, पर उसका भी एक क्रम है और जब वह इस मार्ग का अनुसरण करते हुए क्रमश: आगे बढ़ता है तो उसके जीवन में एक ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि उसके द्वारा जो भी कर्म होता है, उसमें उसकी फलाकांक्षा शेष नहीं रह जाती। पर सामान्यतया तो पुरुषार्थ की प्रेरणा व्यक्ति को लोभ के द्वारा ही मिलती है। इसलिए लोभ के विनाश की बात भाषण और प्रवचन में कहना तो संभव है और सुननेवाला उसको वाणी से दुहरा भी सकता है, क्योंकि लोगों को अच्छी लगनेवाली बातें बहुधा याद हो जाती हैं और वे दुहराते रहते हैं। कई-कई लोगॉं को पूरी गीता याद रहती है। पूरी रामायण याद करने वाले व्यक्ति भी मिल जाते हैं। यह भी एक विशेषता हो सकती है, पर याद हो जाने का अर्थ यह नहीं होता कि वे सब बातें उस व्यक्ति के आचरण और व्यवहार में भी आ गयी हैं! इन बातों को तो, शास्त्रों में बताये गये एक क्रम के द्वारा ही, वास्तविक रूप में, जीवन में ग्रहण किया जा सकता है।

यदि हम युवा व्यक्ति से यह कहें कि तुम बड़े आलसी हो, अपना पेट भी खुद नहीं पाल सकते! माँ-बाप का आश्रय छोड़कर तुम्हें तो अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिये। तो जवान व्यक्ति के संदर्भ में यह बात ठीक मानी जा सकती है पर माँ क्या अपने नन्हे बच्चे से ऐसा कह सकती है कि तुम बड़े आलसी हो, जब देखो तब सोते रहते हो! तुमको तो बस मेरी गोद ही अच्छी लगती है। चलो! उठो और खड़े हो जाओ अपने पैरों के बल! माँ कभी ऐसा नहीं कह सकती क्योंकि नन्हा बच्चा तो गोदी में ही रहेगा!

मानस में इस संदर्भ में एक बड़ा मीठा प्रसंग आता है। लक्ष्मणजी ने जब यह सुना कि प्रभु वन जा रहे हैं तो वे तुरंत प्रभु के पास आये और उनके चरणों में प्रणाम किया। प्रभु उन्हें देखकर ही समझ गये कि ये मेरे वियोग की कल्पना से घबरा रहे हैं। प्रभु उन्हें समझाने के लिये धर्म और कर्म की व्याख्या करते हुए उपदेश देने लगे। प्रभु ने कहा - लक्ष्मण! तुम बहुत बड़े वीर हो और वीर व्यक्ति की परीक्षा तो किसी अवसर-विशेष पर ही होती है। अत: यदि इस समय तुम मेरे साथ जाने की बात करते हो, तो मैं इसे तुम्हारी कायरता मानूँगा -
तात प्रेम बस जनि कदराहू। 2/69/8

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