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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


भगवान् राम ने उपदेश देने के बाद लक्ष्मणजी की ओर देखा। मानो प्रभु यह जानना चाहते थे - लक्ष्मण! मेरा उपदेश तुम्हें कैसा लगा? यह उचित और धर्म के अनुकूत्न लगा या नहीं? पर लक्ष्मणजी ने एक वाक्य के द्वारा प्रभु के सारे भाषण को समाप्त कर दिया। उन्होंने कहा- महाराज! धर्म का कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं है जो सबके लिये समान रूप से उपयोगी हो। प्रभु! यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि क्या उपदेश दिया जा रहा है, महत्त्वपूर्ण तो यह है कि सुनने वाला कौन है और कितना कुछ धारण कर सकता है। लक्ष्मणजी ने यह भी संकेत किया कि धर्म के इस उपदेश को जीवन में उतारने में पूर्ण समर्थ व्यक्ति अभी आने वाले हैं और वे आकर यह सब भार उठा लेंगे। उन्होंने यद्यपि नाम तो नहीं लिया पर उनका संकेत श्री भरत की ओर ही था।

लक्ष्मणजी ने कहा- महाराज! मुझे तो ऐसा लगता है कि उपदेश देते समय आप यह बात भूल गये कि आपके सामने कौन खड़ा है! प्रभु! मैं तो एक नन्हा-सा शिशु हूँ -
मैं सिसु प्रभु सनेह प्रतिपाला। 2/71/3

लक्ष्मणजी का भाव बड़ा मधुर है। वे कहते हैं - प्रभु! यह तो सब बार-बार कहते ही हैं कि छोटों को बर्डों का भार उठाना चाहिये। पर नन्हें शिशु से उसका पिता क्या यह कहता है कि 'तुम मेरा भार उठाओ या मेरा बोझ हल्का कर दो?' नन्हा-सा बालक भला क्या भार उठा सकता है? उस छोटे-से बालक को तो पिता को ही अपनी गोद में उठाना पड़ता है। प्रभु! यह तो उस शिशु की अपरिहार्य लाचारी है कि वह पिता की गोद का बोझ ही बन सकता है, उनका भार हल्का नहीं कर सकता। महाराज! मैं भी तो एक नन्हा-सा शिशु हूँ।

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