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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


महाराज दशरथ ने बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया, उनकी पूजा की और उनके लिये विविध प्रकार के व्यंजन लाये गये। गोस्वामीजी कहते हैं कि -
करि दंडवत मुनिहि सनमानी।
निज आसन बैठारेन्हि आनी।।
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा।
मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।
बिबिध भाँति भोजन करवावा।
मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा।। 1/206/2,4

महाराज दशरथ के इस व्यवहार से महर्षि विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। फिर महाराज दशरथ ने कहा - महाराज! आप-जैसा महापुरुष आया हुआ है यह तो मेरा सौभाग्य है। आपको यदि कोई आवश्यकता हो तो आप मुझे आज्ञा दें। महाराज दशरथ ने उत्साह मंह भरकर यहाँ तक कह दिया कि महाराज! आपके कहने की देर है, मेरे करने में देर नहीं होगी। विश्वामित्रजी सुनकर मन ही मन हँसे। मानो, उनकी हँसी का अर्थ यह था कि राजन्! मेरी माँग जब तक पता न चले तभी तक तुम्हारा उत्साह है, सुनने के बाद तो मुझे लगता नहीं कि यह बना रहेगा।

इस संदर्भ में आप यह विचार करें कि 'महाराज दशरथ का जीवन सकाम है या निष्काम है? हम देखते हैं कि वृद्धावस्था में पहुँचने पर भी पुत्र प्राप्त न होने के कारण वे दुःखी एवं चिन्तित दिखायी देते हैं। वे सोचते हैं कि राज्य, धन-संपत्ति आदि सब है, पर पुत्र नहीं है। संसार में अनेकानेक व्यक्ति पुत्र न होने के कारण दुःखी दिखायी देते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि महाराज दशरथ के जीवन में सद्गुण और धर्म के साथ-साथ पुत्र पाने की 'कामना' भी निश्चित रूप से विद्यमान थी। इस प्रकार उन्हें सकाम ही कहा जायगा। महाराज दशरथ इसे स्वीकार करते हैं। वे इस कामना की पूर्ति के लिये गुरु वशिष्ठ के पास जाते हैं और उन्हें प्रणाम करने के बाद उनके समक्ष अपनी इस कामना को प्रकट करते हैं।

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