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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


कामना तो पुत्र की है पर यह एक शुभ यज्ञ है। तो, कामना की पूर्ति के लिये शुभ मार्ग का आश्रय लेना एक पक्ष हो गया और कामना-पूर्ति के लिये अशुभ मार्ग का आश्रय लेना एक दूसरा पक्ष है। महाराज दशरथ ने जो यज्ञ किया उसका उद्देश्य बड़ा पवित्र और शुभ था इसलिए कामनायुक्त या सकाम होने पर भी यह 'शुभ यज्ञ' कहा गया। आप देखेंगे कि राजा द्रुपद ने भी यज्ञ किया पर उस यज्ञ के पीछे उनका उद्देश्य अपवित्र था।

महाराज द्रुपद की कथा से आप सब परिचित ही होंगे। द्रुपद और द्रोणाचार्य दोनों सहपाठी थे। दोनों में गाढ़ी मित्रता थी। द्रुपद द्रोणाचार्य से कहते थे - मित्र! तुम निश्चिन्त रहो जब मैं राजा बनूँगा तो तुम्हें अपना आधा राज्य दे दूँगा। दोनों शिक्षा पूरी करके अलग हो गये। द्रुपद तो राजा के पुत्र थे, अत: कुछ समय बाद वे राजा बन गये। पर द्रोणाचार्य गरीब ब्राह्मण के पुत्र थे, वे समय बीतने पर भी गरीब के गरीब ही बने रहे। उनके जीवन में इतना अधिक अभाव था कि अपने पुत्र के लिये वे दूध का भी प्रबंध नहीं कर पाते थे। वर्णन आता है कि एक बार जब अश्वत्थामा ने दूसरे बालकों को दूध पीते देखा तो आकर अपने पिता से दूध पीने की इच्छा व्यक्त की। द्रोणाचार्य व्याकुल हो उठे और तब उन्होंने आटे को पानी में घोलकर अपने पुत्र को भुलावा देने की चेष्टा की। इस घटना से उन्हें अपने मित्र द्रुपद का स्मरण हो आया और वे उनके पास गये। द्रुपद ने उन्हें पहचान कर भी, न पहचानने का नाटक किया। ऐसा बहुधा होता ही है कि लोग पद-प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आदि पाकर अपने दरिद्र-गरीब साथियों को पहचान नहीं पाते।

द्रोणाचार्य ने कहा- मित्र द्रुपद! क्या सचमुच तुम मुझे भूल गये? हम दोनों एक साथ पढ़ा करते थे और उस समय तुमने मुझे राजा हो जाने के बाद आधा राज्य देने का वचन दिया था। पर राजा द्रुपद ने स्पष्ट रूप से कह दिया - अरे! बचपन में कही गयी बातों को कोई इतना महत्त्व देता है क्या? आश्चर्य! तुम उन पुरानी बातों को लेकर यहाँ तक चले आये। तुम लौट जाओ, मुझे तो कुछ भी याद नहीं है। द्रोणाचार्यजी अपमानित होकर दुःखी मन से वापस लौट आये। पर प्रतिक्रिया स्वरूप उनके मन से बदला लेने की वृत्ति जाग्रत् हो गयी। द्रोणाचार्य जी शस्त्र विद्या के बहुत बड़े ज्ञाता थे। पितामह भीष्म को लगा कि इनसे बढ़कर कौरवों और पाण्डवों को शस्त्र की शिक्षा देने वाला और कौन होगा? अत: उन्होंने द्रोणाचार्य की नियुक्ति उनके आचार्य के रूप में कर दी और द्रोणाचार्य उन राजपुत्रों को शस्त्र ज्ञान देने लगे।

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