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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


वर्णन आता है कि जब.. धृष्टद्युम्न कुछ बड़ा हुआ तो द्रुपद उसे लेकर द्रोणाचार्य के पास गये और कहा कि आप इसे शस्त्र की शिक्षा दें। द्रोणाचार्य यद्यपि सब जान चुके थे फिर भी उन्होंने सोचा कि मेरे पास यह शिक्षा लेने के लिये आया है, अत: इसे निराश नहीं करूँगा। उन्होंने धृष्टद्युम्न को अस्त्र-शस्त्र की सारी विद्या सिखायी, पर अन्त में धृष्टद्युम्न ने इतने अन्यायपूर्ण ढंग से द्रोणाचार्यजी का वध किया कि सबलोग उसे धिक्कारने लगे। युद्धक्षेत्र में एक ऐसी स्थिति आयी जब द्रोणाचार्य अस्त्र-शस्त्र नीचे रखकर ध्यान में बैठ गये, उसी समय धृष्टद्युम्न अपने रथ से नीचे उतरकर आचार्य द्रोण के पास गया और उसने अपनी तलवार से उनका सिर काट दिया। लोग हाय! हाय! कर उठे और सब कहने लगे कि कितने बड़े अधर्म की बात है कि युद्ध से विरत होकर ध्यान में बैठे हुए आचार्य का इस प्रकार अन्यायपूर्ण ढंग से वध कर दिया गया। बदले की वृत्ति से प्रेरित ऐसी घटनाओं से महाभारत भरा पड़ा है। रामायणकाल में भी ऐसी वृत्ति वाले व्यक्ति थे पर उनकी संख्या बहुत कम थी। लंका युद्ध की अवधि में मेघनाद भी एक यज्ञ करता है, उस यज्ञ के पीछे उसका उद्देश्य भी अपवित्र ही है। वह यज्ञ में मांस और रक्त की आहुति देता है-
मेघनाद मख करइ अपावन।
खल मायावी देव सतावन।। 6/74/4

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा।
आहुति देत रुधिर अरु भैंसा।। 6/75/1

इस यत्न के द्वारा वह ऐसी शक्ति प्राप्त करना चाहता है कि जिसके द्वारा वह लक्ष्मणजी का वध कर सके तथा भगवान् राम को पराजित कर सके। इस प्रकार हिंसा की वृत्ति से किये जाने वाले यज्ञ में यज्ञ सदृश क्रिया तो दृष्टिगोचर हो सकती है पर यज्ञ की भावना नहीं हो सकती। यज्ञ की भावना महाराजश्री दशरथ में थी। अत: उस यज्ञ से सबका हित और कल्याण हुआ और दूसरी ओर यज्ञ-भावना से हीन और हिंसा भावना से किये गये द्रुपद के यज्ञ का फल हिंसा और विनाश के रूप में ही सामने आता है। उस यज्ञ से उत्पन्न धृष्टद्युम्न ने अन्यायपूर्ण ढंग से द्रोणाचार्यजी का वध किया और पुत्री के रूप में प्राप्त होने वाली द्रौपदी महाभारत का मूल कारण बनी। द्रुपद का यह यज्ञ शुभ न होकर अशुभ यज्ञ था जिसका परिणाम विनाशकारी ही सिद्ध हुआ।

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