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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


प्रारंभ में महाराज दशरथ की ममता उन्हें दान देने से रोक रही थी पर वशिष्ठजी की प्रेरणा से वे इस सद्कार्य के लिये प्रस्तुत हो गये। गुरु के सान्निध्य का यही फल है कि उनके सत्संग के द्वारा व्यक्ति ममता और आसक्ति से मुक्त होने की दिशा में अग्रसर होता है। व्यक्ति के लिये दान देने में ममता का त्याग तो अत्यावश्यक है। जिसे आजतक आप अपनी समझते थे उस वस्तु के प्रति ममता का त्याग किये बिना कैसे उसे किसी को दे सकेंगे? इस संदर्भ में एक बहुत वढ़िया बात कही गयी।

हनुमान जी एक नन्हें से मच्छर का रूप बनाकर लंका में प्रवेश कर रहे थे पर लंकिनी ने उन्हें घुसते हुए देख लिया। लंकावालों की दृष्टि बड़ी पैनी होती है और दूसरों का दोष देखने में वे विशेष रूप से निपुण होते हैं। अत: जिसे दूसरों में दोष बहुत दिखायी दे, समझ लेना चाहिये कि वह भी लंका का ही निवासी है। बड़ी वस्तु में दोष दिखायी दे जाय तो यह बात समझ में आती है पर हनुमानजी छोटे से मच्छर के रूप में थे फिर भी लंकिनी ने उन्हें पकड़ लिया। गोस्वामीजी लिखते हैं कि --
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।। 5/3/1,2

लंकिनी कहने लगी- कहीं जा रहे हो चोरों की तरह? मैं तो तुम्हें खाऊँगी! पर तुम यह न समझना कि भूख के कारण मैं तुम्हें खा रही हूँ। मैं तो सिद्धान्तवादी हूँ और मैंने यह निर्णय किया है कि मैं चोरों का विनाश कर दूँगी-
मोर अहार जहाँ लगि चोरा।

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