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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


वशिष्ठजी उस समय सामने आये और उन्होंने दशरथजी को समझाया कि विश्वामित्रजी तो सर्वथा सुपात्र हैं, अत: तुम इन्हें अपने दोनों पुत्रों को समर्पित कर दो! तब महाराज दशरथ ने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम तथा श्रीलक्ष्मणजी को उन्हें सौंप दिया। और कहने लगे –
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ।
तुच्छ मुनि पिता आन नहिं कोऊ।। 1/207/10

महाराज! आज से आप इनके पिता हैं। फिर महाराज दशरथ ने सब कुछ महर्षि पर ही छोड़ दिया कि वे दोनों को जहाँ चाहे ले जायें! महाराज दशरथ को पहले उनकी ममता ही दान से रोक रही थी, पर बाद में गुरुदेव के सत्संग के प्रभाव से उनमें दान की वृत्ति जाग्रत् हो गयी। यह प्रक्रिया अयोध्या की है। पर लंका की स्थिति सर्वथा भिन्न है।

रावण के यहाँ इतनी उन्नति हो रही है जिसकी कोई सीमा नहीं है। गोस्वामीजी इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-
सुख संपति सुत सेन सहाई।
जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई।।
नित नूतन सब बाढ़त जाई। 1/176/1,2

लंका में सुख, संपत्ति, पुत्र, कीर्ति, बल, बुद्धि आदि में नित्यप्रति वृद्धि हो रही है। अब आप उन्नति को मापदण्ड नहीं बनाइये कि यह पुण्य का फल है, क्योंकि उन्नति अयोध्या में ही नहीं, लंका में भी तो होती दिखायी देती है। पर इस उन्नति के बाद भी रावण को वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं हो रही है, क्योंकि इस उन्नति के साथ-साथ रावण का लोभ भी निरंतर बढ़ता ही जा रहा है-
नित नूतन सब बाढ़त जाई।
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।। 1/176/1,2

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