धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
पुलकित हो गये, प्रफुल्लित हो गये और बड़ी प्रसन्नता से उस भरी सभा में श्रीराम की स्तुति की। परशुराम के लिए यह कितना बड़ा त्याग था, इसकी आप कल्पना कीजिए। संसार में तो कुछ लोग दो तरह का व्यवहार करते हैं, अकेले में तो चाहे चरण छू लें, पर सभा में वे चरण छूने से डरते हैं, क्योंकि लोग समझेंगे कि ये कितने बड़े हैं! पर परशुरामजी के चरित्र की महिमा देखिए कि जिन्होंने जीवनभर क्षत्रियों को हराया, उनका संहार किया, वे आज भरी सभा में एक क्षत्रिय बालक की स्तुति कर रहे हैं। वे चाहते तो हारकर चुपचाप लौट जाते या बदला लेने की योजना बनाते, पर ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने इतनी बड़ी सभा में, जहाँ संसार के सारे राजा एकत्र थे, वहाँ श्रीराम की स्तुति करते हैं और बार-बार जय बोलते हैं-
जय रघुबंस बनज बन भानू।
गहन दनुज कुल दहन कृसानु।।
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी।
जय मह मोह कोह भ्रम हारी।।
बिनय सील करुना गुन सागर।
जयति बचन रचना अति नागर।।
सेवक सुखद सुभग सब अंगा।
जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा।
जय महेस मन मानस हंसा।।
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता।
छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू।
भृगुपति गये बनहि तप हेतु।। 1/284/1-7
सूक्ष्म तत्त्व क्या है? एक ओर हैं भगवान् श्रीराम और दूसरी ओर हैं परशुराम, दोनों राम हैं, एक ही नाम है। इसका अर्थ क्या हुआ? यही है स्वरूप के सम्बन्ध में भ्रान्ति। राम को राम के विषय में भ्रम होने का अर्थ है, अपने आपको और अपने स्वरूप के विषय में ही भ्रम हो जाना और परशुरामजी को इतनी जो प्रसन्नता हुई, उसका भी अर्थ यही है कि उन्होंने इस प्रसंग को अपनी जय और पराजय के रूप में नहीं देखा। उन्होंने जिस रूप में इसको देखा, उसका जो चित्रण गोस्वामीजी ने किया है, वह जितना गम्भीर है, उतना ही विलक्षण भी है। परशुरामजी भी अवतार ही हैं, भले वे पूर्ण अवतार न हों, पर ईश्वर के अंशावतार तो हैं ही। हम और आप सभी ईश्वर के अंश हैं। वेदान्त में तो अद्वैत और अभिन्नता का प्रतिपादन है, लेकिन यदि उनका तत्काल ग्रहण न भी हो तो भी जीव ईश्वर का अंश है, यह स्पष्ट है –
ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी।। 7/116/2
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