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प्रसाद का तात्विक विवेचन
।।श्रीराम: शरणं मम।।
प्रसाद
'प्रसाद' शब्द बहुप्रचलित और बहुचर्चित है। कथा आदि के आयोजनों में अधिकांश व्यक्तियों की दृष्टि प्रसाद की ओर ही होती है। प्रसाद शब्द के साथ एक संस्कार जुड़ा हुआ है कि प्रसाद में कुछ मिष्ठान्न वितरण होगा। प्रसाद लेने वाले को भी लेने में संकोच नहीं होता। प्रसाद थोड़ा-सा ही होना चाहिए, बहुधा ऐसा मानते हैं। 'गीता' में और 'श्रीरामचरितमानस' में भी प्रसाद की बड़ी ही तात्त्विक एवं भावनात्मक व्याख्या की गयी है। 'गीता' में प्रसाद के विषय में यह कहा गया कि-
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।। -गीता, 2/65
अर्थात् अन्तःकरण की प्रसन्नता अथवा स्वच्छता के होने पर जीव के सम्पूर्ण दुःखों की हानि हो जाती है, प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।
'श्रीरामचरितमानस' में भीं अनेक प्रसंगों में प्रसाद शब्द का प्रयोग किया गया है। कुछ प्रसंग बड़े सांकेतिक हैं। श्रीभरतजी ने चित्रकूट से अयोध्या की ओर प्रस्थान करने के पहले प्रभु से प्रार्थना की कि-
सो अवलंब देव मोहि देई।
अवधि पारु पावौं जेहि सेई।। 2/306/8
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