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प्रसाद का तात्विक विवेचन
पादुका है तो पैर में पहनने की वस्तु, लेकिन यदि भूल से किसी दूसरे की पादुका में आपका पैर चला जाय तो पादुका यह बता देती है कि मैं आपकी नहीं हूँ। यदि वह सभ्य होगा तो तुरन्त अपना पैर निकाल लेगा। यदि वह इसीलिए आया होगा कि दूसरे की पादुका चुरा लें तो फिर बात दूसरी है। श्रीभरत ने कहा कि अयोध्या का जो राजपद है, वह तो आपका है, पादुका आपने दी। मुझे लगा कि आपने बड़ा अच्छा किया क्योंकि कहीं लोग यह न समझने लगें कि मैंने दूसरे की पादुका उठा ली। इसीलिए भरतजी ने बहुत बढ़िया बात कही कि प्रभु! यह अयोध्या का राजपद आपका है, यह राज्य आपका प्रसाद है। इसलिए इन पादुकाओं को मैं सिर पर धारण करूँगा। इन पादुकाओं में यदि भरत पैर डालने की चेष्टा करेगा तो यह तो चोरी ही होगी।
वस्तुत: सूत्र यही था कि संसार की सारी वस्तुएँ ईश्वर की हैं। उन पर अपना अधिकार मान लेना ही सारे अनर्थों की जड़ है। उस जड़ को मिटाने का उपाय यही है कि हम वस्तु को प्रसाद के रूप में ग्रहण करें, प्रसादबुद्धि का उदय हो और यही सीताजी ने हनुमान जी से कहा कि संसार की इस वाटिका में सबसे बड़े भुजंग दुर्गुण-दुर्विचार हैं, ये किसी को फल खाने नहीं देते हैं, तृप्त होने नहीं देते हैं। उस समय हनुमान जी ने यह कहा कि माँ! यदि आपकी कृपा है तो मुझे इनका डर नहीं है। बन्दरों ने हनुमान जी से पूछा कि आपने आज्ञा माँगी फल खाने की, पर आप लगे बाग उजाड़ने। आपने उजाड़ने की आज्ञा तो नहीं ली थी। हनुमान जी ने कहा कि माँ ने आज्ञा दी थी कि प्रभु के चरण हृदय में धारण करके फल खाओ! फिर आपने बाग क्यों उजाड़ दिया? राक्षसों को क्यों मारा? और लंका क्यों जलाई? हनुमान जी ने कहा कि यही तो फल खाने का फल था।
माँ की कृपा का फल खाने के बाद भी केवल हमारी ही तृप्ति हो जाय तो काम पूरा नहीं हुआ। कृपा के फल खाने का फल यही है कि मोह की वाटिका उजड़ जाय, दुर्गुणों का विनाश हो जाय और प्रवृत्ति की लंका का दुर्ग जलकर नष्ट हो जाय। जब तक यह नहीं हुआ, तब तक सच्चे अर्थों में जीवन की धन्यता नहीं होती। मूल सूत्र यही है कि हम संसार की वस्तुओं को भगवान् की मान करके उनको समस्त संसार की सेवा के लिए अर्पित करते हैं तो हमारी अहंता-ममता ध्वस्त हो जाती हैं और हम धन्य हो जाते हैं।
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।। 7/124 क
।। बोलिए सियावर रामचन्द्र की जय।।
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