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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


1. सेवा केवल समीप होने पर ही नहीं की जाती। पूर्ण जागरूकता तभी सम्भव है, जब स्वामी की सत्ता का सर्वदेश और सर्वकाल में अनुभव किया जाए। कौशलेन्द्र को इस मार्ग से गए बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, पर श्री भरत के लिए अब भी उसके कण-कण में प्रभु का स्पर्श है। और प्रतिक्षण उनके नेत्रों के सम्मुख राघव के चरण-कमल और उनकी सुघर रेखाएँ नाच रही हैं।

1. सेवक को अभिमान से सर्वथा दूर रहना चाहिए। अपने भाव और क्रिया में अपूर्णता देखना ही पूर्णता की ओर ले जाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है, क्योंकि भाव की कोई सीमा नहीं। अपनी भावना में पूर्णता का आभास होते ही अहंकार रूप कुंभकर्ण का हृदय में निवास हो जाता है।

मोह दश मौलि तदभ्रात अहंकार। पाकारि-जित काम विश्राम हारी।।
(विनय-पत्रिका)


फिर सेवक में जागृति कहाँ, जो उसका मुख्य धर्म है। तब तो वह ‘मागेसि नींद मास षट केरी’ का उपासक हो जाता है। श्री भरत का पैदल चलते हुए भी अपनी त्रुटि को देखना सेवाधर्म का महान् आदर्श है। साथ के सेवक तो आचरण द्वारा शिक्षा देने वाले इस महान् शिक्षक की बात को सुनकर ग्लानि से गड़े जा रहे हैं।

देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब  सेवक गन  गरहिं  गलानी।।


त्रिवेनी के पावन पुलिन पर पहुँच कर समग्र पुरवासियों सहित श्री भरत ने स्नान कर ब्राह्मणों का उचित सम्मान किया। अन्य लोगों ने तीर्थराज की महिमा को दृष्टिगत रखकर ही यह सब किया था, पर राम-प्रेमी तो प्रेम का ही भिखारी है। वह धर्मपालन भी केवल अपने प्यार की चाह के लिए करता है। स्नान करने के पश्चात् महाभागवत् की दृष्टि वह खोज पाई, जो दूसरों को न दीख सका।

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