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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


श्री भरत तो प्रेमियों के आचार्य हैं। उनके मुख से हा राम! के साथ निकला हुआ दीर्घ निःश्वास वायुमंडल में एक ऐसा भाव विद्युत भर देता है, जिससे पाषाण भी द्रवीभूत होकर रसमय हो जाते हैं।

जबहिं राम कहि  लेहिं  उसाँसा। उमगत प्रेम  मनहुँ  चहुँ  पासा।।
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन  प्रेम  न  जाइ  बषाना।।

मार्ग में पुनः कालिन्दी के दर्शन हुए और नेत्रों में प्रेम के आँसू झलकने लगे। क्यों? प्रीतम राम का-सा ही तो वर्ण है इस यमुना का!

बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीर लोचन जल छाए।।

हम नित्य ही देखते हैं – कभी मेघ को, कभी मयूर को और कभी यमुना को, पर अपने श्याम की स्मृति हृदय में नहीं आती। क्योंकि वह हमारे नयनों में नहीं समाया है या यों कहना चाहिए कि उनके लिए इन वासनामलिन नेत्रों में स्थान नहीं है। पर श्री भरत जैसे प्रेमी के लिये तो विश्व की प्रत्येक वस्तु प्रियतम की स्मृति का कारण बन जाती है। उनके मन-तन-नयन में वही तो समाया है। पीत रंग की कोई वस्तु दीख गई तो पीताम्बर का ध्यान हो आया और अरुणता में उनके अरुण-पद-तल का। कुन्द का श्वेत रंग उनके हृदय में कुन्द-कली जैसी प्रभु की स्वच्छ-दन्त पंक्तियों का स्मरण करा देती है। कृष्ण रंग उसके मन को कमनीय-केश-कालिका में उलझा देता है। एक क्षण के लिए भी उनकी स्मृति ओझल नहीं हो पाती उनके हृदय से। भगवान शंकर को राम नाम इतना प्रिय है कि ‘र’ से प्रारम्भ होने वाला कोई भी शब्द उन्हें हर्ष मग्न कर देने के लिए यथेष्ट है।

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