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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


गुरुजनों की आज्ञा-पालन ही ‘श्रुति-सेतु-रक्षण’ है। निर्णय से न हटना ‘सत्य-सन्धता’ है। और राक्षस-बध ‘जग-मंगल’ हेतु है। ‘हम लोग उचित निर्णय नहीं कर सकते’ – इस बात को मनवाने के लिए भगवान् की सर्वज्ञता की प्रशंसा करते हैं। पुनः यह कहकर कि हम ही नहीं समग्र विश्व ही उनकी इच्छा से संचालित हो रहा है, इसलिए हमें ही उनकी इच्छा का पालन करना चाहिए, अपने भाषण का वास्तविक मत व्यक्त कर देते हैं। पर चतुर वक्ता के नाते उन्होंने यह अच्छी तरह देख लिया कि हमारे ऐश्वर्य-कथन का प्रभाव श्री भरत और पुरवासियों पर नहीं पड़ा। माधुर्य-रस में सरोबोर रसिकों को यह प्रभावित कर भी नहीं पाता। तब वे संक्षेप में भरत-मत का भी समर्थन कर देते हैं। एक बात बड़ी ही महत्वपूर्ण है कि अपने मत के विषय में वे स्पष्ट निर्णय दे देते हैं कि “राखे राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ” पर लौटने के विषय में वे दूसरों से उपाय पूछते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि महर्षि ने बड़ी ही चतुराई से दे दिया था। वास्तव में महर्षि के चित्रकूट वाले तर्क अकाट्य हैं। खण्डन का अभिप्राय है राम के ऐश्वर्य की अस्वीकृति। इस प्रकार यहाँ महर्षि का तर्क पूर्ण सबल है, किन्तु भरत तो भरत ही हैं। यहाँ उनकी दूरदर्शिता और विवेकशक्ति देखने योग्य है –

उन्होंने महर्षि के तर्कों का स्पर्श भी नहीं किया। तर्क का उत्तर तर्क से न देकर उन्होंने अमोघ प्रेमास्त्र का प्रयोग किया। परिस्थिति विकट थी। क्योंकि वसिष्ठ जी से लोग अवाक् हो गये थे। तब हम देखते हैं – करबद्ध महाव्रती को-

उतरु न आव लोग भए भोरे।
सब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।

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