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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


अब प्रभु की आज्ञा मिल जाने से वे भी स्पष्ट बोले। “भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू”। बड़ी ही प्रसन्नता भरी वाणी में श्री भरत ने कहना प्रारम्भ किया –

नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।।
अब कृपाल  जस आयसु  होई। करौं  सीस  धरि  सादर सोई।।
सो  अवलंब   देव  मोहि देई। अवधि  पारुँ पावौं  जेहि सेई।।
दो. – देव  देव  अभिषेक  हित गुर अनुसासन पाइ।
     आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ।।

प्रत्येक शब्द में कितना आह्लाद और बाल सुलभ सरलता। अपनी बात का रंचमात्र आग्रह नहीं – उस प्रेमव्रती के हृदय में। प्यारे की वाक्य रक्षा पर शतशत जीवन निछावर कर देने की इच्छावाला वह प्रेमी धन्य है।

इसके पश्चात् महात्मा भरत ने बड़े ही नम्र और प्रेममय शब्दों में चित्रकूट दर्शन की आज्ञा माँगी। और वात्सल्य निधि रामभद्र ने भी सहर्ष अनुमति प्रदान की। साथ ही अभिषेक के निमित्त आये हुए जल को महर्षि अत्रि की आज्ञानुसार स्थापित करने की आज्ञा दी। देवताओं ने सुरतरु सुमनों की वृष्टि की। ‘जय भरत’ ‘जय राम’ की ध्वनि से सारी वनस्थली गूँज उठी।

* * *

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