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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


कोई जा रहा है कि प्रियपात्र प्रियतम, और आज्ञा माँगता है प्रेयसी से– “मैं जाना चाहता हूँ, आज्ञा दो।” और प्रेयसी को नहीं सूझ पड़ता कि वह क्या कहे? वह पूछ बैठती है –

रोकहिं जौ तौ अमंगल होत,
सनेह नसै जो कहौं पिय जाइए।

जौ  कहौं जाहुन  तो प्रभुता जौ
कछु न कहौं तो हिए दुख पाइए।
जौ कहौं जीहैं  तुम्हारे बिना नहि
तो  हरिचन्दजू क्यों  पतिआइए।
ताते पयान समय तुमही तुम्हें का
कहौं  मोहि   पिया   समझाइए।

वास्तव में ऐसी ही कठिन समस्या है। वह सहृदयता थी, उनका सोचना उचित है। किन्तु यहाँ की स्थिति निराली है। प्रियतम नहीं, प्रेम कहने जा रहा हूँ – “मैं जाऊँगा आज”। क्यों ऐसा कह रहा है वह? इसीलिए कि उसके प्राणेश्वर को यह कहने में संकोच लग रहा है कि “आज जाओ”। उन्हें शील न छोड़ना पड़े – इसके लिए वह स्वयं शील समाप्त करके बोलेगा। धन्य है “तत्सुख” का आदर्श पालक –

भल दिन आजु जानि मन माहीं।
राम  कृपाल  कहत  सकुचाहीं।।
गुर  नृप  भरत  सभा अवलोकी।
सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी।।

के उत्तर में प्रेमी का कथन देखिए –

भरत  सुजान  राम रुख देखी।
उठि सप्रेम धरि धीरु बिसेखी।।
करि  दंडवत  कहत कर जोरी।
राखीं नाथ  सकल रुचि मोरी।।
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू।
बहुत  भाँति  दुखु पावा आपू।।
अब  गोसाइँ  मोहि देउ रजाई।
सेवौं अवध अवधि  भरि जाई।।
दो. – जेहिं  उपाय  पुनि  पाय  जनु देखै दीनदयाल।
      सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल।।

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