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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


अपनत्व से भरा आदेश मिला–

तात तुम्हारि मोरि  परिजन की।
चिंता गुरहि नृपहि घर बन की।।
माथे पर  गुर  मुनि  मिथिलेसू।
हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू।।
मोर   तुम्हार  परम  पुरुषारथु।
स्वारथु सुजसु   धरमु परमारथु।।
पितु  आयसु  पालिहिं  दुहु भाई।
लोक  बेद  भल   भूप  भलाई।।
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें।
चलेहुँ कुमग  पग परहिं न खालें।।
अस  बिचारि  सब  सोच बिहाई।
पालहु  अवध अवधि  भरि जाई।।
देसु  कोसु   परिजन  परिवारू।
गुर  पद   रजहिं लाग छरुभारू।।
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी।
पालेहु   पुहुमि   प्रजा   रजधानी।।
दो. – मुखिया सुखु  सो चाहिए खान पान कहुँ एक।
     पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।

राजधरम   सरबसु   एतनोई।
जिमि मन माहँ मनोरथ गोई।।

इस प्रकार थोड़ी-सी पंक्तियों में प्रभु द्वारा धर्म सर्वस्व ही व्यक्त हुआ। श्री भरत को हृदय को इससे धैर्य तो हुआ, पर फिर भी एक आधार के बिना पूर्ण सन्तोष नहीं होता। राघवेन्द्र भक्त परबस हैं अतः उसकी इच्छा पूरी करना वे अपना कर्त्तव्य समझते हैं। किन्तु गुरुजनों की उपस्थिति में मर्यादा के ध्यान से वे संकुचित हो रहे हैं। अन्त में स्नेह की विजय हुई है।

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