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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


महाराज श्री जनक तथा मुनिगण जो अपनी ज्ञाननिष्ठा व दृढ़ता के लिए विश्व में प्रसिद्ध थे, वे भी आज – और वे भी नहीं उनका वैराग्य तथा उनका विवेक भी प्रेममग्न हो गया –

तन मन बचन उमग अनुरागा।
धीर  धुरंधर  धीरजु  त्यागा।।
बारिज  लोचन  मोचत  बारी।
देखि दसा  सुर  सभा दुखारी।।
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से।
ज्ञान अनल मन कसें कनक से।।
जे   विरंचि   निरलेप   उपाए।
पदुम पत्र जिमि जग जल जाए।।
दो. – तेउ बिलोकि  रघुबर  भरत प्रीति अनूप अपार।
     भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार।।

चारों ओर घोर व्यथा और स्नेह का साम्राज्य छाया हुआ है। महाकवि का हृदय रुदन कर रहा है, नेत्र भी बरस रहे हैं, पर वह अपनी लेखनी को चलाए जा रहा है – “बस बस कवि अब रहने दो राम और भरत का वियोग। यह क्या लिख रहे हो।” पर कवि कर्त्तव्य पराधीन है। उसका कार्य है घटना का वर्णन। तब कवि का हृदय पुकार उठता है –

बरनत  रघुबर   भरत  बियोगू।
सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू।।

राघव रुद्ध कण्ठ, जलपूरित नेत्रों से भरत को समझाते हैं। पर क्या समझावें – स्वयं ही उनके धैर्य का बाँध टूट गया। उसके पश्चात् प्रभु ने शत्रुघ्न को हृदय से लगा लिया। हृदय प्रसन्नता से भर उठा। मन-ही-मन कह उठे – “धन्य हो मूकव्रती! तुम्हारा जीवन सफल हो गया। तुमने भरत का अनुगमन किया है। तुम्हारा भाग्य अतुल है।”

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