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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


अमोघ औषधि का प्रयोग किया था प्रेमी ने। श्री हनुमान उठ बैठे। सामने देखते हैं – अहो ! क्या प्रभु विजयी होकर लौट आए। या यह भी कोई राक्षस की माया है? अचानक ध्यान हो आया। अहो! यह तो प्रभु-पद-पद्म-मधुकर भरत और शत्रुघ्न हैं।

भरत-सत्रु-सूदन बिलोकि  कपि  चकित भयो  है।
राम लखन रन जीति अवध आए, कैधौं मोहि भ्रम,
कैधौं काहू कपट ठयो है।।

स्नेह उमड़ पड़ा – चरणों में गिर पड़े। प्रेमपूरित हृदय से आँसू बहाते हुए श्री भरत ने उठाकर हृदय से लगा लिया।

प्रेम पुलकि पहिचानि के पद पदुम नयो है।
कह्यो न परत जेहि भाँति दुह भाइन,
सनेह सों उर लाय लयो हैं।।

किन्तु सारा समाचार सुनते ही ग्लानि की सीमा न रही। फिर भी इस समय चिन्ता का अवसर नहीं। श्री हनुमान से कहते हैं – “भक्तराज! आप मेरे बाण पर बैठ जाएँ, क्षण भर में मैं आपको भगवान राघवेन्द्र के निकट पहुँचा दूँगा।” महावीर चकित हो गये – क्या कह रहे हैं, राजकुमार? सुमेरु से भी अधिक गुरु मेरा भार कैसे संभाल सकता है? हृदय में एक अभिमान की छाया आई। परीक्षा के लिए सोचा, ‘देखूँ तो बाण पर चढ़कर’, - देखते हैं – परन्तु आश्चर्य और महाआश्चर्य। भक्तराज हनुमान सावधान हो गये। तुरन्त ध्यान हो आया – जिनकी गुणगाथा नित्य प्रभु श्रीमुख से गाते हैं, वे ही हैं ये प्रेममूर्ति भरत। न जाने कहाँ से मुझे यह भ्रम हुआ। बाण से उतर कर श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं। वाष्प-वारि-पूरित नेत्र व भाव भरे शब्दों में धन्य भरत का उच्चारण करते हैं।

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