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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


और ध्यान से पढ़े तो यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री हनुमान भी समग्र लंका नष्ट करने में समर्थ थे और समुद्र-तट पर आवेश में ऐसा कहते भी हैं –

सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।

किन्तु प्रभु की लीलाप्रियता का स्मरण कर लज्जित हो जाते हैं। जामवन्त से उचित सम्मति माँगते हैं। वे भी इतनी ही सम्मति देते हैं कि “पता लगाकर आओ” – क्योंकि प्रभु जब कपि सेना लेकर स्वयं उसका वध करेंगे, तो उनकी यश-वृद्धि होगी। हम लोगों को उनका यश न लेना चाहिए।

परिकर की इस भावना से स्पष्ट है कि प्रधान व्यक्ति को सभी लीला से परिचित हैं – अतः वे उस नाटक के अनुरूप ही कार्य करते हैं। राघव के हाथ में स्मृति और विस्मृति दोनों से वे समान रूप में अपने नाट्य को सफल बनाते हैं। अतः साक्षात् पार्षद विवेकी श्री भरत के लिए न चल पड़ना माधुर्य-लीला न होकर ऐश्वर्य-लीला का सूचक है।

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