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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


सरस्वती बेचारी कठपुतली ही तो है – सूत्रधार के संकेत पर नाचना उसका कार्य। और सूत्रधार कौन... जैसे बुद्धि स्तब्ध हो जाती है। अरे, यह तो लीलानायक राम ही हैं। तब तो जो कुछ हुआ राम की इच्छा से। तब क्या उद्देश्य है इस लीला का? और इसके उत्तर के रूप में उन्हें दिखाई पड़ा ‘भरत-चरित्र’। तो इसे अमंगल मानना, दोषी की खोज करना ही व्यर्थ है। जहाँ राम के कर कमल हैं, वहाँ अमंगल कहाँ? वहाँ तो सब शिव है, भले ही वह रुद्र क्यों न दिखाई दे। अतः अन्त में उन्होंने स्पष्ट कर दिया। ‘भरत! दोषी और दोष का तो अन्वेषण करना ही वयर्थ है। यदि राम का वनगमन न होता, तो विश्व के समक्ष तुम्हारा यह पुनीत चरित्र कैसे आता, जिससे वह लोकवेद की समन्वयी मर्यादा का दर्शन कर धन्य हो।’

यहउ कहत भल कहहि न कोई। लोक बेद बुध सम्मत सोई।।
तात  तुम्हार  विमल जस  गाई। पाइहि  लोकहुँ बेद बड़ाई।।

कैकेयी अम्बा को निमित्त बनाकर नटनागर ने ऐसी स्थिति प्रस्तुत कर दी कि भरत का हृदय व्यथा से मथ उठा और तब एक के पश्चात् एक रत्न प्रकट होने लगे भरत-समुद्र से। बिना मन्थन के यह सब लोक-दृष्टि से अछूता ही तो रह जाने वाला था। कहते हैं समुद्र-मन्थन में सर्वप्रथम हलाहल प्रकट हुआ, जिसकी ज्वाला से त्रैलोक्य भस्म होने जा रहा था और तब भूत-भावन भगवान शिव ने उसका पान कर लोगों को सुरक्षा का दान दिया। इस समुद्र से भी प्रारम्भ में हलाहल ही व्यक्त हुआ प्रतीत होता है। अगले अध्याय में हम सर्वप्रथम हलाहल की ही चर्चा करेंगे।

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