लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822

Like this Hindi book 0

भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


चौदह वर्ष राज्य का स्वामित्व स्वीकार करने के पश्चात् प्रभु को राज्य अर्पित करने का तात्पर्य अयोध्या पर अपने स्वामित्व की स्वीकृति और दानी बनने की धृष्टता। पर अहं विहीनता की जिस स्थिति में भरत पहुँचे हुए हैं, वहाँ इतनी संभावना कहाँ? उन्होंने राज्यकार्य का संचालन किया। पर राज्य वे वस्तुतः जिसका मानते थे उसके कहने पर हृदयराध्य की पादुका को सिंहासनासीन करके वे एक सेवक की भाँति समग्र राज-काज करते रहे। अतः उन्होंने करुणा भरे शब्दों में प्रार्थना की –

आपनि  दारुन  दीनता सबहिं कहेउँ सिरु नाइ।
देखे बिनु रघुबीर पद जिय को जरनि न जाइ।।


प्रत्यक्ष रूप से देखने में स्वार्थ, पर इस स्वार्थ के अभाव में व्यक्ति दम्भी बनकर रह जाता है। आज के जीवन में हम हैं जो परोपकार का दम भरते हैं, पर जो हमारे पास होगा वहीं तो दूसरों को दान में देंगे। अतः हम स्वयं के जीवन की अशान्ति, राग-द्वेष का वितरण करते हुए परमार्थ का दावा करते हैं। पर प्रेममूर्ति ने कहा, मुझे तो अपने हृदय की जलन शान्त करने की अनुमति दीजिए। और तभी वे कोटि-कोटि हृदयों की ज्वाला शान्त करने वाले सुधांशु बन गए। पुरवासियों ने सुना तो लगा जैसे भरत की वाणी में उनकी हृदयवन्ती बज उठी हो। जैसे आतप सन्तप्त भूमि में रस-वर्षण के लिए घन घिर आए हों। वे गुरु वशिष्ठ के पूर्व नियोजित समर्थक थे। पर यहाँ तो जन-जन के कण्ठ से एक ही ध्वनि गूँज उठी। “प्यारे भरत युग-युग जियो। रामप्रेम वारिधर सदा, इसी प्रकार रस वर्षण करते हुए हमारे हृदयों को शीतल करते रहो। विरह पयोधि के नाविक तुमने आज कोटि-कोटि यात्रियों की जीवन रक्षा की।” गुरुदेव के विवेक कर्णधार के स्थान पर चुना गया भरत-प्रेम का कर्णधार। केवल एक ध्वनि –

दो. – अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
     सोक  सिन्धु  बूड़त सबहिं  तुम अवलन्बन दीन्ह।।


राम भगत अब अमिय अघाहू।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book