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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
रोग नष्ट करने के शास्त्रों में अनेक उपाय बताये गये हैं, किन्तु अधिकांश कठिन प्रयत्न साध्य हैं। अतः श्री काकभुसुण्डि जी एक सुगम उपाय बताते हैं –
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मतिपूरी।।
से इन मानस रोगों का ध्वंस हो सकता है। श्री भरत-दर्शन से सारी औषधि योजना सुगम हो गई। उनके प्रेमानन्द ने लोगों को समाधिस्थ कर दिया। श्री भरत का दर्शन होते ही वे उनमें तन्मय हो गये। श्री भरत में मन की क्षणिक तन्मयता का अभिप्राय ही है समस्त वासना और रोगों का नाश। इस प्रकार निष्प्रयत्न ‘मानस रोगों’ का समूलोच्छेद कर श्री भरत ने जड़-चेतन सभी को मुक्ति का अधिकारी बना दिया।
पर इधर बेचारा स्वार्थान्ध इन्द्र तो व्यग्र हो उठा श्री भरत की प्रेममयी स्थिति को देखकर। उससे रहा न गया, तो गुरु बृहस्पति से कह ही बैठा –
बनी बात बेगरन चहँति। करिये जलन छल सोधि।।
‘रहत न आरत के चित्त चेतू’ का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है? एक ओर तो वह उन्हें ‘सुप्रेम पयोधि’ कहता है और दूसरी ओर समुद्र के प्रवाह को देव माया रूप मिट्टी के घरौंदे से रोकना चाहता है। पर इसी विचारहीनता में उसका कल्याण भी तो निहित है। यदि बृहस्पति से वह अपनी भावनाओं को व्यक्त न कर देता तो ‘श्री भरत-महिमा’ का ज्ञान भी उसे कैसे होता? देवगुरु को हँसी आ गई देवराज की इस मूर्खता पर। सहस्र नेत्रवाला इन्द्र सत्य को नहीं देख पाता। उन्हें तो इसी पर आश्चर्य हो रहा है। बड़े ही गम्भीर शब्दों में उन्होंने शिष्य को उपदेश देना प्रारम्भ किया।
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