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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

नेटाल इंडियन कांग्रेस


वकालत को धंधा मेरे लिए गौण वस्तु थी और सदा गौण ही रही। नेटाल में अपने निवास को सार्थक करने के लिए तो मुझे सार्वजनिक काम में तन्मय हो जाना था। भारतीय मताधिकार प्रतिबंधक कानून के विरुद्ध केवल प्रार्थना-पत्र भेजकर ही बैठा नहीं जा सकता था। उसके बारे में आन्दोलन चलते रहने से ही अपनिवेश-मंत्री पर उसका असर पड सकता था। इसके लिए एक संस्था की स्थापना करना आवश्यक मालूम हुआ। इस सम्बन्ध में मैंने अब्दुल्ला सेठ से सलाह कीस दूसरे साथियों से मिला, और हमने एक सार्वजनिक संस्था खड़ी करने का निश्चय किया ष

उसके नामकरण में थोड़ धर्म-संकट था। इस संस्था को किसी पक्ष के साथ पक्षपात नहीं करना था। मैं जानता था कि कांग्रेस का नाम कंज्रवेटिव ( पुराणपंथी) पक्ष में अप्रिय था। पर कांग्रेस हिन्दुस्तान का प्राण थी। उसकी शक्ति तो बढ़नी ही चाहिये। उस नाम को छिपाने में अथवा अपनाते हुए संकोच करने में नामर्दी की गंध आती थी। अतएव मैंने अपनी दलीले पेश करके संस्था का नाम 'कांग्रेस' ही रखने का सुझाव दिया, और सन् 1894 के मई महीने की 22 तारीख को नेटाल इंडियन कांग्रेस का जन्म हुआ।

दादा अब्दुल्ला ऊपरवाला बड़ा कमरा भर गया था। लोगों ने इस संस्था का उत्साह पूर्वक स्वागत किया। उसका विधान सादा रखा था। चन्दा भारी था। हर महीने कम-से-कम पाँच शिलिंग देने वाला ही उसका सदस्य बन सकता था। धनी व्यापारियों के रिझा कर उनसे अधिक-से-अधिक जिनता लिया जा सके, लेने का निश्चय हुआ। अब्दुल्ला सेठ से महीने के दो पौंड लिखवाये। दूसरे भी सज्जनों से इतने ही लिखवाये। मैंने सोचा कि मुझे तो संकोच करना ही नहीं चाहिये, इसलिए मैंने महीने का एक पौंड लिखाया। मेरे लिए यह कुछ बड़ी रकम थी। पर मैंने सोचा कि अगर मेरा खर्च चलने वाला हो, तो मेरे लिए हर महीने एक पौंड देना अधिक नहीं होगा। ईश्वर ने मेरी गाड़ी चला दी। एक पौंड देने वालो की संख्या काफी रही। दस शिलिंगवाले उनसे भी अधिक। इसके अलावा, सदस्य बने बिना कोई अपनी इच्छा से भेंट के रुप में जो कुछ भी दे सो स्वीकार करना था।

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