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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


गोखले के साथ एक महीना-1

पहले ही दिन गोखले ने मुझे यह अनुभव न करने दिया कि मैं मेंहमान हूँ। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा। मेरी सब आवश्यकताये जान ली और उनके अनुकूल सारी व्यवस्था कर दी। सौभाग्य से मेरी आवश्यकतायें थोड़ी ही थी। मैंने अपना सब काम स्वयं कर लेने की आदत डाली थी, इसलिए मुझे दूसरो से बहुत थोड़ी सेवा लेनी होती थी। स्वावलम्बन की मेरी इस आदत की, उस समय की मेरी पोशाक आदि की, सफाई की, मेरे उद्यम की और मेरी नियमितता की उनपर गहरी छाप पड़ी थी और इन सबकी वे इतनी तारीफ करते थे कि मैं घबरा उठता था।

मुझे यह अनुभव न हुआ कि उनके पास मुझसे छिपाकर रखने लायक कोई बात थी। जो भी बड़े आदमी उनसे मिलने आते, उनका मुझसे परिचय कराते थे। ऐसे परिचयो में आज मेरी आँखो के सामने सबसे अधिक डॉ. प्रफुल्लचन्द्र राय आते है। वे गोखले के मकान के पास ही रहते थे और कह सकता हूँ कि लगभग रोज ही उनसे मिलने आते थे।

'ये प्रोफेसर राय हैं। इन्हें हर महीने आठ सौ रुपये मिलते हैं। ये अपने खर्च के लिए चालिस रुपये रखकर बाकी सब सार्वजनिक कामों में देते हैं। इन्होंने ब्याह नहीं किया हैं और न करना चाहते हैं।' इन शब्दों में गोखले ने मुझसे उनका परिचय कराया।

आज के डॉ. राय औऱ उस समय के प्रो. राय में मैं थोड़ा ही फर्क पाता हूँ। जो वेश-भूषा उनकी तब थी, लगभग वहीं आज भी हैं। हाँ, आज वे खादी पहनते हैं, उस समय खादी थी ही नहीं। स्वदेशी मिल के कपड़े रहे होगें। गोखले और प्रो. राय की बातचीत सुनते हुए मुझे तृप्ति ही न होती थी, क्योंकि उनकी बातें देशहित की ही होती थी अथवा कोई ज्ञानचर्चा होती थी। कई दुःखद भी होती थी, क्योंकि उनमें नेताओं की टीका रहती थी। इसलिए जिन्हें मैंने महान योद्धा समझना सीखा था, वे मुझे बौने लगने लगे।

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