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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इस समय की एक बात यहीं कहनी होगी। हम दम्पती के बीच जो जो कुछ मतभेद या कलह होता, उसका कारण यह मित्रता भी थी। मैं ऊपर बता चुका हूँ कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति था। मेरे वहम को बढाने वाली यह मित्रता थी, क्योंकि मित्र की सच्चाई के बारे में मुझे कोई सन्देह था ही नहीं। इन मित्र की बातों में आकर मैंने अपनी धर्मपत्नी को कितने ही कष्ट पहुँचाये। इस हिंसा के लिए मैंने अपने को कभी माफ नहीं किया हैं। ऐसे दुःख हिन्दू स्त्री ही सहन करती हैं, और इस कारण मैंने स्त्री को सदा सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखा हैं। नौकर पर झूठा शक किया जाय तो वह नौकरी छोड़ देता हैं, पुत्र पर ऐसा शक हो तो वह पिता का घर छोड़ देता हैं, मित्रों के बीच शक पैदा हो तो मित्रता टूट जाती हैं, स्त्री को पति पर शक हो तो वह मन मसोस कर बैठी रहती हैं, पर अगर पति पत्नी पर शक करे तो पत्नी बेचारी का भाग्य ही फूट जाता हैं। वह कहाँ जाये? उच्च माने जाने वाले वर्ण की हिन्दू स्त्री अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी नहीं सकती, ऐसा एक तरफा न्याय उसके लिए रखा गया हैं। इस तरह का न्याय मैंने दिया, इसके दुःख को मैं कभी नहीं भूल सकता। इस संदेह की जड़ तो तभी कटी जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ, यानि जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उलकी सहचारिणी हैं, सहधर्मिणी हैं, दोनो एक दूसरे के सुख-दुःख के समान साझेदार हैं, और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को हैं उतनी ही पत्नी को हैं। संदेह के उस काल को जब मैं याद करती हूण तो मुझे अपनी मूर्खता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता- विषयक अपनी मूर्च्छा पर दया आती हैं।

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