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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


युद्ध के बाद ट्रान्सवाल उजाड़ जैसा हो गया था। वहाँ न खाने को अन्न था, न पहनने -ओढ़ने को कपड़े मिलते थे। खाली और बन्द दुकानों को माल से भरना और खुलवाना था। यह तो धीरे-धीरे ही हो सकता था। जैसे-जैसे माल इकट्ठा होता जाय, वैसे-वैसे ही घरबार छोड़कर भागे हुए लोगों को वापस आने दिया जा सकता था। इस कारण प्रत्येक ट्रान्सवाल वासी को परवाना लेना पड़ता था। गोरों को तो परवाना माँगते ही मिल जाता था। मुसीबत हिन्दुस्तानियों की थी।

लड़ाई के दिनों में हिन्दुस्तान और लंका से बहुत से अधिकारी और सिपाही दक्षिण अफ्रीका पहुँच गये थे। उनमें से जो लोग वहीं आबाद होना चाहे उनके लिए वैसी सुविधा कर देना ब्रिटिश राज्याधिकारियों का कर्तव्य माना गया था। उन्हें अधिकारियों का नया मण्डल तो बनाना ही था। उसमें इन अनुभवी अधिकारियों का सहज ही उपयोग हो गया। इन अधिकारियों की तीब्र बुद्धि ने एक नया विभाग ही खोज निकाला। उसमें उनकी कुशलता भी अधिक तो थी ही ! हब्शियों से सम्बन्ध रखने वाला एक अलग विभाग पहले से ही था। ऐसी दशा में एशियावासियों के लिए भी अलग विभाग क्यों न हो? दलील ठीक मानी गयी। यह नया विभाग मेरे दक्षिण अफ्रीका पहुँचने से पहले ही खुल चुका था और धीरे-घीरे अपना जाल बिछा रहा था। जो अधिकारी भागे हुओ को वापस आने के परवाने देता था वही सबको दे सकता था। पर उसे यह कैसे मालूम हो कि एशियावासी कौन हैं? इसके समर्थन में दलील यह दी गयी कि नये विभाग की सिफारिश पर ही एशियावासियों को परवाने मिसा करे, तो उस अधिकारी की जिम्मेवारी कम हो जाये और उसका काम भी हल्का हो जाय। वस्तुस्थिति यह थी कि नये विभाग को कुछ काम की और कुछ दाम की जरूरत थी। काम न हो तो इस विभाग की आवश्यकता सिद्ध न हो सके और फलतः वह बन्द हो जाय। अतएव उसे यह काम सहज ही मिल गया।

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