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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैं यह वर्णन आज तटस्थ भाव से कर सकता हूँ, क्योंकि यह घटना हमारे बीते युग की हैं। आज मैं मोहान्ध पति नहीं हूँ। शिक्षक नहीं हूँ। कस्तूरबाई चाहे तो मुझे आज घमका सकती हैं। आज हम परखे हुए मित्र हैं, एक दूसरे के प्रति निर्विकार बनकर रहते हैं। कस्तूरबाई आज मेरी बीमारी में किसी बदले की इच्छा रखे बिना मेरी चाकरी करनेवाली सेविका हैं।

ऊपर की घटना सन् 1898 की हैं। उस समय मैं ब्रह्मचर्य पालन के विषय में कुछ भी न जानता था। यह वह समय था जब मुझे इसका स्पष्ट भान न था कि पत्नी केवल सहधर्मिणी, सह चारिणी और सुख दुःख की साथिन हैं। मैं यह मानकर चलता था कि पत्नी विषय-भोग का भाजन हैं, और पति की कैसी भी आज्ञा क्यों न हो, उसका पालन करने के लिए वह सिरजी गयी है।

सन् 1900 में मेरे विचारो में गंभीर परिवर्तन हुआ। उसकी परिणति सन् 1906 में हुई। पर इसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे।

यहाँ तो इतना कहना काफी हैं कि जैसे-जैसे मैं निर्विकार बनता गया, वैसे-वैसे मेरी गृहस्थी शान्त, निर्मल और सुखी होती जा रहीं हैं।

इस पुण्यस्मरण से कोई यह न समझ ले कि हम दोनोंं आदर्श पति-पत्नी हैं, अथवा मेरी पत्नी में कोई दोष ही नहीं हैं या कि अब तो हमारे आदर्श एक ही हैं। कस्तूरबाई के अपने स्वतंत्र आदर्श हैं या नहीं सो वह बेचारी भी नहीं जानती होगी। संभव है कि मेरे बहुतेरे आचरण उसे आज भी अच्छे न लगते हो। इसके सम्बन्ध में हम कभी चर्चा नहीं करते, करने में कोई सार नहीं। उसे न तो उसके माता पिता ने शिक्षा दी और न जब समय था तब मैं दे सका। पर उसमें एक गुण बहुत ही बड़ी मात्रा में हैं, जो बहुत सी हिन्दू स्त्रियों में न्यूनाधिक मात्रा में रहता है। इच्छा से हो चाहे अनिच्छा से, ज्ञान से हो या अज्ञान से, उसने मेरे पीछे-पीछे चलने में अपने जीवन की सार्थकता समझी हैं और स्वच्छ जीवन बिताने के मेरे प्रयत्न में मुझे कभी रोका नहीं हैं। इस कारण यद्यपि हमारी बुद्धि शक्ति में बहुत अन्तर है, फिर भी मैंने अनुभव किया है कि हमारा जीवन संतोषी, सुखी और ऊर्ध्वगामी हैं।

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