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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


यह कथा टीकाकारो को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिखी जा रही हैं। सत्य के प्रयोगों में यह भी एक प्रयोग ही हैं। साथ ही, लिखने के पीछे यह दृष्टि तो है ही कि इसमे साथियों को कुछ आश्वासन मिलेगा। इसका आरम्भ ही उनके संतोष के लिए किया गया हैं। यदि स्वामी आनन्द और जयरामदास मेरे पीछे न पड़ जाते, तो कदाचित् यह कथा आरम्भ ही न होती। अतएव इसके लिखने में यदि कोई दोष हो रहा हो तो उसमें वे हिस्सेदार हैं।

अब मैं शीर्षक के विषय पर आता हूँ। जिस प्रकार मैंने हिन्दुस्ती मुहर्रिरों और दूसरों को घर में अपने कुटुम्बियों की तरह रखा था, उसी प्रकार मैं अंग्रेजो को भी रखने लगा। मेरा यह व्यवहार मेरे साथ रहनेवाले सब लोगों के अनुकूल न था। पर मैंने उन्हें हठ-पूर्वक अपने घर रखा था। कह नहीं सकता कि सबको रखने मैंने हमेशा बुद्धिमानी ही की थी। कुछ संबंधो के कड़वे अनुभव भी प्राप्त हुए थे। किन्तु ऐसे अनुभव तो देशी-विदेशी दोनों के संबंध में हुए। कड़वे अनुभवों के लिए मुझे पश्चाताप नहीं हुआ और यह जानते हुए कि मित्रों को असुविधा होती है और कष्ट उठाना पड़ता हैं, मैंने अपनी आदत नहीं बदली और मित्रों ने उसे उदारतापूर्वक सहन किया हैं। नये-नये मनुष्यों के साथ संबंध जब मित्रों के लिए दुःखद सिद्ध हुए हैं तब उनका दोष उन्हें दिखाने में मैं हिचकिचाया नहीं हूँ। मेरी अपनी मान्यता हैं कि आस्तिक मनुष्यों में, जो अपने में विद्यमान ईश्वर को सब में देखा चाहते हैं . सब के साथ अलिप्त होकर रहने की शक्ति आनी चाहिये। और ऐसी शक्ति तभी विकसित की जा सकती हैं, जहाँ-जहाँ अनखोजे अवसर आवें, वहाँ-वहाँ उनसे दूर न भाग कर नये-नये सम्पर्क स्थापति किये जायें और वैसा करते हुए भी राग-द्वेष से दूर रहा जाय।

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