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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


यह अखबार साप्ताहिक था, जैसा कि आज भी है। आरम्भ में तो वह गुजराती, हिन्दी, तामिल और अंग्रेजी में निकलता था। पर मैंने देखा कि तामिल और हिन्दी विभाग नाममात्र के थे। मुझे लगा कि उनके द्वारा समाज की कोई सेवा नहीं होती। उन विभागो को रखने में मुझे असत्य का आभास हुआ। अतएव उन्हें बन्द करके मैंने शान्ति प्राप्त की।

मैंने यह कल्पना नहीं की थी कि इस अखबार में मुझे कुछ अपने पैसे लगाने पड़ेगे। लेकिन कुछ ही समय में मैंने देखा कि अगर मैं पैसे न दू तो अखबार चल ही नहीं सकता था। मैं अखबार का संपादक नहीं था। फिर भी हिन्दुस्तानी और गोरे दोनों यह जानने लग गये थे कि उसके लेखो के लिए मैं ही जिम्मेदार था। अखबार न निकलता तो भी कोई हानि न होती। पर निकलने के बाद उसके बन्द होने से हिन्दुस्तानियों की बदनामी होगी, और समाज को हानि पहुँचेगी, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ।

मैं उसमें पैसे उंडलेता गया और कहा जा सकता हैं कि आखिर ऐसा भी समय आया, जब मेरी पूरी बचत उसी पर खर्च हो जाती थी। मुझे ऐसे समय की याद हैं, जब मुझे हर महीने 75 पौड भेजने पड़ते थे।

किन्तु इतने बर्षों के बाद मुझे लगता है कि इस अखबार ने हिन्दुस्तानी समाज की अच्छी सेवा की हैं। इससे धन कमाने का विचार तो शुरू से ही किसी की नहीं था।

जब तक वह मेरे अधीन था, उसमें किये गये परिवर्तनों के द्योतक थे। जिस तरह आज 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' मेरे जीवन के कुछ अंशो के निचोड़ रूप में हैं, उसी तरह 'इंडियन ओपीनियन' था। उसमें मैं प्रति सप्ताह अपनी आत्मा उंडेलता था और जिसे मैं सत्याग्रह के रूपर में पहचानता था, उसे समझाने का प्रयत्न करता था।

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