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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


वहाँ रहने वाले जमीन के मालिक थे, इसलिए उनको कुछ न कुछ नुकसानी की रकम निश्चित करने के लिए एक खास अदालत कायम हुई थी। म्युनिसिपैलिटी जो रकम देने को तैयार हो उसे मकान मालिक स्वीकार न करता तो उक्त अदालक द्वारा ठहराई हुई रकम उसे मिलती थी। यदि म्युनिसिपैलिटी की द्वारा सूचित रकम से अधिक रकम देने का निश्चय अदालत करती तो मकान मालिक के वकील का खर्च नियम के अनुसार म्युनिसिपैलिटी को चुकाना होता था।

इनमे से अधिकांश दावो में मकान मालिको ने मुझे अपना वकील किया था। मुझे इस काम से धन पैदा करने की इच्छा नहीं थी। मैंने उनसे कह दिया था, 'अगर आप जीतेंगे तो म्युनिसिपैलिटी की तरफ से जो भी खर्च मिलेगा उससे मैं संतोष कर लूँगा। आप हारे चाहे जीते, यदि मुझे हर पट्टे के पीछे दस पौंड आप मुझे देगे तो काफी होगा।' मैंने उन्हे बताया कि इसमें से भी आधी रकम गरीबो के लिए अस्पताल बनाने या ऐसे ही किसी सार्वजनिक काम में खर्च करने के लिए अलग रखने का मेरा इरादा हैं। स्वभावतः यह सुनकर सब बहुत खुश हुए।

लगभग सत्तर मामलों मेंसे एक में हार हुई। अतएव मेरी फीस की रकम काफी बढ़ गयी। पर उसी समय 'इंडियन ओपीनियन' की माँग मेरे सिर पर लटक रही थी। अतएव लगभग सोलह सौ पौड़ का चेक उसमें चला गया, ऐसा मेरा ख्याल है।

इन दावो में मेरी मान्यता के अनुसार मैंने अच्छी मेंहनत की थी। मुवक्किलो की तो मेरे पास भीड़ ही लगी रहती थी। इनमे से प्रायः सभी उत्तर हिन्दुस्तान के बिहार इत्यादि प्रदेशों से और दक्षिण के तामिल, तेलुगु प्रदेश से पहले इकरार नामे के अनुसार आये थे और बाद में मुक्त होने पर स्वतंत्र धंधा करने लगे थे।

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