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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


यदि वेस्ट चाहते तो मुनाफा न होता देखकर काम छोड सकते थे और मैं उन्हें किसी तरह का दोष न दे सकता था। यही नहीं, बल्कि बिना जाँच पड़ताल किये इसे मुनाफेवाला काम बताने का दोष मुझ पर लगाने का उन्हें अधिकार था। इतना सब होने पर भी उन्होंने मुझे कभी कड़वी बात तक नहीं सुनायी। पर मैं मानता हूँ कि इस नई जानकारी के कारण वेस्ट की दृष्टि में मेरी गितनी उन लोगों में हुई होगी, जो जल्दी में दूसरो का विश्वास कर लेते है। मदनजीत की धारणा के बारे में पूछताछ किये बिना उनकी बात पर भरोसा करके मैंने वेस्ट से मुनाफे की बात कही थी। मेरा ख्याल है कि सार्वजनिक काम करने वाले को ऐसा विश्वास न रखकर वही बात कहनी चाहिये जिसकी उसने स्वयं जाँच कर ली हो। सत्य के पुजारी को तो बहुत साबधानी रखनी चाहिये। पूरे विश्वास के बिना किसी के मन पर आवश्यकता से अधिक प्रभाव डालना भी सत्य को लांछित करना है। मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि इस वस्तु को जानते हुए भी जल्दी में विश्वास करके काम हाथ में लेने की अपनी प्रकृति को मैं पूरी तरह सुधार नहीं सका। इसमे मैं अपनी शक्ति से अधिक काम करने के लाभ को दोष देखता हूँ। इस लोभ के कारण मुझे जितना बेचैन होना पड़ा हैं, उसकी अपेक्षा मेरे साथियों को कहीं अधिक बेचैन होना पड़ा हैं।

वेस्ट का ऐसा पत्र आने से मैं नेटाल के लिए रवाना हुआ। पोलाक तो मेरी सब बाते जानने लगे ही थे। वे मुझे छोड़ने स्टेशन तक आये और यह कहकर कि 'यह रास्ते में पढ़ने योग्य हैं, आप इसे पढ़ जाइये, आपको पसन्द आयेगी।' उन्होंने रस्किन की 'अंटु दिस लास्ट' पुस्तक मेरे हाथ में रख दी।

इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद मैं छोड ही न सका। इसने मुझे पकड़ लिया। जोहानिस्बर्ग से नेटान का रास्ता लगभग चौबीस घंटो का था। ट्रेन शाम को डरबन पहुँचती थी। पहुँचने के बाद मुझे सारी रात नींद न आयी। मैंने पुस्तक में सूचित विचारो को अमल ने लाने को इरादा किया।

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