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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैं मन-ही-मन इन विचारो को पक्का कर रहा था और शरीर को कस रहा था कि इतने में कोई यह अफवाह लाया कि विद्रोह शान्त होने जा रहा है और अब हमे छुट्टी मिल जायेगी। दूसरे दिन हमे घर जाने की इजाजत मिली और बाद में कुछ दिनो के अन्दर सब अपने अपने घर पहुँच गये। इसके कुछ ही दिनो बाद गवर्नर ने उक्त सेवा के लिए मेरे नाम आभार प्रदर्शन का एक विशेष पत्र भेजा।

फीनिक्स पहुँचकर मैंने ब्रह्मचर्य की बात बहुत रस-पूर्वक छगनलाल, मगनलाल, वेस्ट इत्यादि के सामने रखी। सबको बात पसन्द आयी। सबने उसकी आवश्यकता स्वीकार की। सबने यह भी अनुभव किया कि ब्रह्मचर्य का पालन बहुत ही कठिन है। कइयो ने प्रयत्न करने का साहस भी किया और मेरा ख्याल है कि कुछ को उसमें सफलता भी मिली।

मैंने व्रत ले लिया कि अबसे आगे जीवनभर ब्रह्मचर्य का पालन करुँगा। उस समय मैं इस व्रत के महत्त्व और इसकी कठिनाइयो को पूरी तरह समझ न सका था। इस की कठिनाइयो का अनुभव तो मैं आज भी करता रहता हूँ। इसके महत्त्व को मैं दिन दिन अधिकाधिक समझता जाता हूँ। ब्रह्मचर्य-रहित जीवन मुझे शुष्क और पशुओ जैसा प्रतीत होता है। स्वभाव से निरंकुश है। मनुष्य का मनुष्यत्व स्वेच्छा से अंकुश में रहने में है। धर्मग्रंथो में पायी जानेवाली ब्रह्मचर्य का प्रशंसा में पहले मुझे अतिशयोक्ति मालूम होती थी, उसके बदले अब दिन दिन यह अधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह उचित है और अनुभव-पूर्वक लिखी गयी है।

जिस ब्रह्मचर्य के ऐसे परिणाम आ सकते है, वह सरल नहीं हो सकता, वह केवल शारीरिक भी नहीं हो सकता। शारीरिक अंकुश से ब्रह्मचर्य का आरंभ होता है। परन्तु शुद्ध ब्रह्मचर्य में विचार की मलिनता भी न होनी चाहिये। संपूर्ण ब्रह्मचारी को तो स्वप्न में भी विकारी विचारी नहीं आते। और, जब तक विकारयुक्त स्वप्न आते रहते है, तब तक यह समझना चाहिये कि ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है।

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