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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इतनी पूँजी से मुझे आपना काम चलाना था और इसमे मेरे जो सहायक थे वे मुझसे भी कम जानने वाले थे। परन्तु देशी भाषा के प्रति मेरे प्रेम ने अपनी शिक्षण शक्ति के विषया में मेरी श्रद्धा ने, विद्यार्थियो के अज्ञान ने और उदारता ने इस काम में मेरी सहायता की।

तामिल विद्यार्थियो का जन्म दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ था, इसलिए वे तामिल बहुत कम जानते थे। लिपि तो उन्हें बिल्कुल नहीं आती थी।

इसलिए मैं उन्हें लिपि तथा व्याकरण के मूल तत्त्व सिखात था। यह सरल काम था। विद्यार्थी जानते थे कि तामिल बातचीत में तो वे मुझे आसानी से हरा सकते थे, और जब केवल तामिल जानने वाले ही मुझसे मिलने आते, तब वे मेरे दुभाषिये का काम करते थे। मेरी गाड़ी चली, क्योंकि मैंने विद्यार्थियो के सामने अपने अज्ञान को छिपाने का कभी प्रयत्न ही नहीं किया। हर बात ने जैसा मैं था, वैसा ही वे मुझे जानने लगे थे। इस कारण अक्षर-ज्ञान की भारी कमी रहते हुए भी मैं उनके प्रेम और आदर से कभी वंचित न रहा।

मुसलमान बालकों को उर्दू सिखाना अपेक्षाकृत सरल था। वे लिपि जानते थे। मेरा काम उनमें वाचन की रूचि बढाने और उनके अक्षर सुधारने का ही था।

मुख्यतः आश्रम के ये सब बालक निरक्षर थे और पाठशाला में कहीं पढ़े हुए न थे। मैंने सिखाते-सिखाते देखा कि मुझे उन्हें सिखाना तो कम ही है। ज्यादा काम तो उनका आलस्य छुड़ाने का, उनमें स्वयं पढ़ने की रूचि जगाने का और उनकी पढ़ाई पर निगरानी रखने का ही था। मुझे इतने काम से संतोष रहता था। यही कारण है कि अलग-अलग उमर के और अलग अलग विषयोवाले विद्यार्थियो को एक ही कमरे में बैठाकर मैं उनसे काम ले सकता था।

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