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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


उन दिनो मुझ में घूमने फिरने की काफी शक्ति थी। इससे मैं काफी भ्रमण कर सका था। उस समय मैं इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ था कि रास्तो पर चलना भी मुश्किल से संभव हो। इस भ्रमण में मैंने लोगों की धर्म भावना की अपेक्षा उनका पागलपन, उनकी चंचलता, उनका पाखंड और उनकी अव्यवस्था ही अधिक देखी। साधुओ का तो जमघट ही इकट्ठा हो गया था। ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे सिर्फ मालपुए और खीर खाने के लिए ही जन्मे हो। यहाँ मैंने पाँच पैरोवाली एक गाय देखी। मुझे तो आश्चर्य हुआ किन्तु अनुभवी लोगों ने मेरा अज्ञान तुरन्त दूर कर दिया। पाँच पैरोवाली गाय दृष्ट और लोभी लोगों के लोभ की बलिरूप थी। गाय के कंधे को चीर कर उसमें जिन्दे बछडे का काटा हुआ पैर फँसाकर कंधे को सी दिया जाता था और इस दोहरे कसाईपन का उपयोग अज्ञानी लोगों को ठगने में किया जाता था। पाँच पैरोवाली गाय के दर्शन के लिए कौन हिन्दू न ललचायेगा? उस दर्शन के लिए वह जितना दान दे उतना कम है।

कुम्भ का दिन आया। मेरे लिए वह धन्य घड़ी थी। मैं यात्रा की भावना से हरद्वार नहीं गया था। तीर्थक्षेत्र में पवित्रता की शोध में भटकने का मोह मुझे कभी नहीं रहा। किन्तु 17 लाख लोग पाखंडी नहीं हो सकते थे। कहा गया था कि मेंले में 17 लाख लोग आये होगे। इनमे असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए, शुद्धि प्राप्त कमाने के लिए आये थे, इसमे मुझे कोई शंका न थी। यह कहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है कि इस प्रकार की श्रद्धा आत्मा को किस हद तक ऊपर उठाती होगी।

मैं बिछौने पर पड़ा पड़ा विचार सागर में डूब गया। चारो ओर फैले हुए पाखंड के बीत ये पवित्र आत्माये भी है। ये ईश्वर के दरबार में दंडनीय नहीं मानी जायेगी। यदि ऐसे अवसर पर हरद्वार में आना ही पाप हो तो मुझे सार्वजनिक रुप से उसका विरोध करके कुम्भ के दिन तो हरद्वार का त्याग ही करना चाहिये। यदि यहाँ आने में और कुम्भ के दिन रहने में पाप न हो, तो मुझे कोई-न-कोई कठोर व्रत लेकर प्रचलित पाप का प्रायश्चित करना चाहिये, आत्मशुद्धि करनी चाहिये। मेरा जीवन व्रतो की नींव पर रचा हुआ है। इसलिए मैंने कोई कठिन व्रत लेने का निश्चय किया।

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