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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


ब्रजकिशोरबाबू को मैंने बहुत ठंडे दिमाग का पाया। उन्होंने शान्ति से उत्तर दिया, 'हमसे जो मदद बनेगी, हम देंगे। लेकिन हमें समझाइये कि आप किस प्रकार की मदद चाहते है।'

इस बातचीत में हमने सारी रात बिता दी। मैंने कहा, 'मुझे आपकी वकालत की शक्ति का कम ही उपयोग होगा। आपके समान लोगों से तो मैं लेखक और दुभाषिये का काम लेना चाहूँगा। मैं देखता हूँ कि इसमे जेल भी जाना पड़ सकता है। मैं इसे पसन्द करूँगा कि आप यह जोखिम उठाये। पर आप उसे उठाना न चाहे, तो भले न उठाये। वकालत छोड़कर लेखक बनने और अपने धंधे को अनिश्चित अविधि के लिए बन्द करने की माँग करके मैं आप लोगों से कुछ कम नहीं माँग रहा हूँ। यहाँ कि हिन्दी बोली समझने में मुझे कठिनाई होती है। कागज-पत्र सब कैथी में या उर्दू में लिखे होते है, जिन्हे मैं नहीं पढ़ सकता। इनके तरजुमे की मैं आपसे आशा रखता हूँ। यह काम पैसे देकर कराना हमारे बस का नहीं है। यह सब सेवाभाव से और बिना पैसे के होना चाहिये।'

ब्रजकिशोरबाबू समझ गये, किन्तु उन्होंने मुझसे और अपने साथियो से जिरह शुरू की। मेरी बातो के फलितार्थ पूछे। मेरे अनुमान के अनुसार वकीलों को किस हद तक त्याग करना चाहिये, कितनो की आवश्यकता होगी, थोड़े-थोड़े लोग थोड़ी-थोड़ी मुद्दत के लिए आवे तो काम चलेगा या नहीं, इत्यादि प्रश्न मुझसे पूछे। वकीलों से उन्होंने पूछा कि वे कितना त्याग कर सकते है।

अन्त में उन्होंने अपना यह निश्चय प्रकट किया, 'हम इतने लोग आप जो काम हमे सौपेगे, वह कर देने के लिए तैयार रहेगे। इनमे से जितनो को आप जिस समय चाहेगे उतने आपके पास रहेंगे। जेल जाने की बात नई है। उसके लिए हम शक्ति-संचय करने की कोशिश करेंगे।'

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