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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इस घटना के बाद मैं अधिक वेचैन हो गया? दुसरा कोई विध्न आ गया तो? इस चिन्ता में मैं अपने दिन बिता रहा था ति इतने में खबर मिली कि 4 सितम्बर को रवाना होने वाले जहाज में जूनागढ़ के एक वकील बारिस्टरी के लिए विलायत जानेवाले हैं। बड़े भाई ने जिन के मित्रों से मेरे बारे में कह रखा था, उनसे मैं मिला। उन्होंने भी यह साथ न छोड़ने की सलाह दी। समय बहुत कम था। मैंने भाई को तार किया और जाने की इजाजत माँगी। उन्होंने इजाजत दे दी। मैंने बहनोई से पैसे माँगे। उन्होंने जाति के हुक्म की चर्चा की। जाति-च्युत होना उन्हें न पुसाता न था। मैं अपने कुटुम्ब के एक मित्र के पास पहुँचा औऱ उनसे विनती की कि वे मुझे किराये वगैरा के लिए आवश्यक रकम दे दे और बाद में भाई से ले ले। उन मित्र ने ऐसा करना कबूल किया, इतना ही नहीं, बल्कि मुझे हिम्मत भी बँधायी। मैंने उनका आभार माना, पैसे लिये और टिकट खरीदा।

विलायत की यात्रा का सारा सामान तैयार करना था। दूसरे अनुभवी मित्र नें सामान तैयार करा दिया। मुझे सब अजीब सा लगा। कुछ रुचा, कुछ बिल्कुल नहीं। जिस नेकटाई को मैं बाद में शौक से लगाने लगा, वह तो बिल्कुल नहीं रुची। वास्कट नंगी पोशाक मालूम हुई।

पर विलायत जाने के शौक की तुलना में यह अरुचि कोई चीज न थी। रास्ते में खाने का सामान भी पर्याप्त ले लिया था।

मित्रों ने मेरे लिए जगह भी त्र्यम्बकराय मजमुदार (जूनागढ़ के वकील का नाम ) की कोठरी में ही रखी थी। उनसे मेरे विषय में कह भी दिया था। वे प्रौढ़ उमर के अनुभवी सज्जन थे। मैं दुनिया के अनुभव से शून्य अठारह साल का नौजवान था। मजमुदार ने मित्रों से कहा, 'आप इसकी फिक्र न करें।'

इस तरह 1888 के सितम्बर महीने की 4 तारीख को मैंने बम्बई का बन्दरगाह छोड़ा।

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