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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इस प्रकार के विचार लेकर मैं बम्बई बन्दर पर उतरा था। इसलिए मुझे इन दोनों भाइयो से मिलकर प्रसन्नता हुई। हमारा स्नेह बढ़ता गया। हमारी जान-पहचान होने के बाद तुरन्त ही अलीभाइयो को सरकार ने जीते-जी दफना दिया। मौलाना मुहम्मदअली को जब इजाजत मिलती, तब वे बैतूल या छिंदवाड़ा जेल से मुझे लम्बे लम्बे पत्र लिखा करते थे। मैंने उनसे मिलने की इजाजत सरकार से माँगी थी, पर वह मिल न सकी।

अलीभाइयो की नजरबन्दी के बाद मुसलमान भाई मुझे कलकत्ते मुस्लिम लीग की बैठक में लिवा ले गये थे। वहाँ मुझ से बोलने को कहा गया। मैं बोला। मैंने मुसलमानों को समझाया कि अलीभाइयो को छुड़ाना उनका धर्म है।

इसके बाद वे मुझे अलीगढ कॉलेज में भी ले गये थे। वहाँ मैंने मुसलमानों को देश के लिए अख्तियार करने की दावत दी।

अलीभाइयो को छुड़ाने के लिए मैंने सरकार से पत्र-व्यवहार शुरू किया। उसके निमित्त से इन भाइयो की खिलाफत-सम्बन्धी हलचल का अध्ययन किया। मुसलमानों के साथ चर्चाये की। मुझे लगा कि अगर मैं मुसलमानों का सच्चा मित्र बनना चाहता हूँ तो मुझे अलीभाइयो को छुड़ाने में और खिलाफत के प्रश्न को न्यायपूर्वक सुलझाने में पूरी मदद करनी चाहिये। खिलाफत का सवाल मेरे लिए सरल था। मुझे उसके स्वतंत्र गुण-दोष देखने की जरूरत नहीं थी। मुझे लगा कि अगर उसके सम्बन्ध में मुसलमानों की माँग नीति-विरुद्ध न हो, तो मुझे उनकी मदद करनी चाहिये। धर्म के प्रश्न में श्रद्धा सर्वोपरि होती है। यदि एक ही वस्तु के प्रति सब की एक सी श्रद्धा हो, तो संसार में एक ही धर्म रह जाय। मुझे मुसलमानों की खिलाफत सम्बन्धी माँग नीति-विरुद्ध प्रतीत नहीं हुई, यही नहीं, बल्कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लायड जॉर्ज ने इस माँग को स्वीकार किया था, इसलिए मुझे तो उनसे वचन पालन करवाने का भी प्रयत्न करना था। वचन ऐसे स्पष्ट शब्दों में था कि मर्यादित माँग के गुण-दोष जाँचने का काम अपनी अन्तरात्मा को प्रसन्न करने के लिए ही करना था।

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