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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


कांग्रेस में हजारों की भीड़ होती थी। उसमें राष्ट्र का काम कैसे हो सकता था? प्रतिनिधियों की संख्या की कोई सीमा न थी। किसी भी प्रान्त से चाहे जितने प्रतिनिधि हो सकता था। अतएव कुछ व्यवस्था करने की आवश्यकता सबको प्रतीत हुई। विधान तैयार करने का भार उठाने की जिम्मेदारी मैंने अपने सिर ली। मेरी एक शर्त थी। जनता पर दो नेताओं का प्रभुत्व मैं देख रहा था। इससे मैंने चाहा कि उनके प्रतिनिधि मेरे साथ रहें।

मैं समझता था कि वे स्वयं शान्ति से बैठकर विधान बनाने का काम नहीं कर सकते। इसलिए लोकमान्य और देशबन्धु से उनके विश्वास के दो नाम मैंने माँगे। मैंने यह सुझाव रखा कि इनके सिवा विधान-समिति में और कोई न होना चाहिये। यह सुझाव मान लिया गया। लोकमान्य ने श्री केलकर का और देशबन्धु ने श्री आई. बी. सेन का नाम दिया। यह विधान-समिति एक दिन भी कहीं मिलकर नहीं बैठी। फिर भी हमने अपना काम एकमत से पूरा किया। पत्र-व्यवहार द्वारा अपना काम चला लिया। इस विधान के लिए मुझे थोड़ा अभिमान है। मैं मानता हूँ कि इसका अनुकरण करके काम किया जाये, तो हमारा बेड़ा पार हो सकता है। यह तो जब होगा, परन्तु मेरी यह मान्यता है कि इस जिम्मेदारी को लेकर मैंने कांग्रेस में सच्चा प्रवेश किया।

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