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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इन बुनकरो को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा। इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रों में उसका प्रचार किया। यों हम कातनेवाली मिलो के अवैतनिक एजेंट बने। मिलो के सम्पर्क में आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमे मिली। हमने देखा कि मिलो का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था। वे हाथ-करधे की सहायता स्वेच्छा से नहीं, बल्कि अनिच्छा से करती था।

यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेगे नहीं, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी। मिलो के एजेंट बनकर देशसेवा करते है, ऐसा हमे प्रतीत नहीं हुआ।

लेकिन न तो कही चरखा मिलता था और न कही चरखे का चलाने वाला मिलता था। कुकड़ियाँ आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है इसका तो हमे ख्याल ही नहीं था। एक बार कालीदास वकील एक वकील एक बहन को खोजकर लाये। उन्होंने कहा कि यह बहन सूत कातकर दिखायेगी। उसके पास एक आश्रमवासी को भेजा, जो इस विषय में कुछ बता सकता था, मैं पूछताछ किया करता था। पर कातने का इजारा तो स्त्री का ही था। अतएव ओने-कोने में पड़ा हुई कातना जाननेवाली स्त्री तो किसी स्त्री को ही मिल सकती थी।

सन् 1917 में मेरे गुजराती मित्र मुझे भड़ोच शिक्षा परिषद में घसीट ले गये थे। वहाँ महा साहसी विधवा बहन गंगाबाई मुझे मिली। वे पढी-लिखी अधिक नहीं थी, पर उनमें हिम्मत और समझदारी साधारणतया जितनी शिक्षित बहनो में होती है उससे अधिक थी। उन्होंने अपने जीवन में अस्पृश्यता की जड़ काट डाली थी, वे बेधड़क अंत्यजों में मिलती थी और उनकी सेवा करती थी। उनके पास पैसा था, पर उनकी अपनी आवश्यकताये बहुत कम थी। उनका शरीर कसा हुआ था। और चाहे जहाँ अकेले जाने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती थी। वे घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहती थी। इन बहन का विशेष परिचय गोधरा की परिषद में प्राप्त हुआ। अपना दुख मैंने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज में भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हलका कर दिया।

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