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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

एक संवाद


जिस समय स्वदेशी के नाम से परिचित यह आन्दोलन चलने लगा, उस समय मिल मालिको की ओर से मेरे पास काफी टीकाये आने लगी। भाई उमर सोबानी स्वयं एक होशियार मिल-मालिक थे। अतएव वे अपने ज्ञान का लाभ तो मुझे देते ही थे, पर दूसरो की राय की जानकारी भी मुझे देते रहते थे। उनमें से एक की दलील का असर उन पर भी हुआ और उन्होंने मुझे उस भाई के पास चलने की सूचना की। मैंने उसका स्वागत किया। हम उनके पास गये। उन्होंने आरम्भ इस प्रकार किया, 'आप यह तो जानते है न कि आपका स्वदेशी आन्दोलन पहला ही नहीं है?'

मैंने जवाब दिया, 'जी हाँ।'

'आप जानते है न कि बंग भंग के समय स्वदेशी आन्दोलन ने खूब जोर पकड़ा था, जिसका हम मिलवालो ने खूब फायदा उठाया था और कपड़े के दाम बढ़ा दिये थे? कुछ नहीं करने लायक बाते की भी?'

'मैंने यह बात सुनी है और सुनकर मैं दुःखी हुआ हूँ।'

'मैं आपका दुःख समझता हूँ पर उसके लिए कोई कारण नहीं है। हम परोपकार के लिए व्यापार नहीं करते। हमें तो पैसा कमाना है। अपने हिस्सेदारो को जवाब देना है। वस्तु का मूल्य उसकी माँग पर निर्भर करता है, इस नियम के विरुद्ध कौन जा सकता है? बंगालियो को जानना चाहिये था कि उनके आन्दोलन से स्वदेशी वस्त्र के दाम अवश्य बढेंगे।'

'वे विचारे मेरी तरह विश्वासशील है। इसलिए उन्होंने मान लिया कि मिल-मालिक नितान्त स्वार्थी नहीं बन जायेंगे। विश्वासधात तो कदापि न करेंगे। स्वदेशी के नाम पर विदेशी कपड़ा हरगिज न बेचेंगे।'

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