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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


घर से मिठाई-मसाले वगैरा जो मँगाये थे, सो लेने बन्द कर दिये और मन ने दूसरा मोड़ पकड़ा। इस कारण मसालों का प्रेम कम पड़ गया, और जो सब्जी रिचमंड में मसाले के अभाव में बेस्वाद मालूम होती थी, बह अब सिर्फ उबाली हूई स्वादिष्ट लगने लगी। ऐसे अनेक अनुभवों से मैंने सीखा कि स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं, पर मन हैं।

आर्थिक दृष्टि तो मेरे सामने थी ही। उन दिनों एक पंथ ऐसा था, जो चाय-कॉफी को हानिकारक मानता था और कोको का समर्थन करता था। मैं यह समझ चुका था कि केवल उन्हीं वस्तुओ का सेवन करना योग्य है, जो शरीर-व्यापार के लिए आवश्यक है। इस कारण मुख्यतः मैंने चाय और कॉफी का त्याग किया और कोको को अपनाया।

भोजन-गृह के दो विभाग थे। एक में जितने पदार्थ खाओ उतने पैसे देने होते थे। इनमें एक बार में शिलिंग-दो शिलिंग को भी खर्च हो जाता था। इस विभाग में अच्छी स्थिति के लोग जाते थे। दूसरे विभाग में छह पेनी में तीन पदार्थ और डबल-रोटी का एक टुकड़ा मिलता था। जिन दिनों मैंने खूब किफायतशारी शुरू की थी, उन दिनों मैं अक्सर छह पेनीवाले विभाग में जाता था।

ऊपर के प्रयोगों के साथ उप-प्रयोग तो बहुत हुए। कभी स्टार्च वाला आहार छोड़ा, कभी सिर्फ डबल रोटी और फल पर ही रहा, कभी पनीर, दूध और अंड़ो का ही सेवन किया।

यह आखिरी प्रयोग उल्लेखनीय है। यह पन्द्रह दिन भी नहीं चला। स्टार्च-रहित आहार का समर्थन करने वालों ने अंडो की खूब स्तुति की थी और यह सिद्ध किया था कि अंडे माँस नहीं हैं। यह तो स्पष्ट है कि अंडे खाने से कियी जीवित प्राणी को दुःख नहीं पहुँचता। इस दलील के भुलावे में आकर मैंने माताजी के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाये, पर मेरा वह मोह क्षणिक था। प्रतिज्ञा का नया अर्थ करने का मुझे कोई अधिकार न था। अर्थ तो प्रतिज्ञा करानेवाले का ही माना जा सकता था। माँस न खाने की प्रतिज्ञा कराने वाली माता को अंडो का तो ख्याल हो ही नहीं सकता था, इसे मैं जानता था। इस कारण प्रतिज्ञा के रहस्य का बोध होते ही मैंने अंडे छोड़े और प्रयोग भी छोड़ा।

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