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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

धर्मों का परिचय


विलायत में रहते हुए मुझे कोई एक साल हुआ होगा। इस बीच दो थियॉसॉफिस्ट मित्रो से मेरी पहचान हुई। दोनो सगे भाई थे और अविवाहित थे। उन्होंमे मुझसे गीता की चर्चा की। वे एडविन आर्नल्ड की गीता का अनुवाद पढ रहे थे। पर उन्होंने मुझे अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए न्योता। मैं शरमाया, क्योंकि मैंने गीता संस्कृत में या मातृभाषा में पढ़ी ही नहीं थी। मुझे उनसे कहना पड़ा कि मैंने गीता पढ़ी ही नहीं पर मैं उसे आपके साथ पढ़ने के लिए तैयार हूँ। संस्कृत का मेरा अभ्यास भी नहीं के बराबर ही हैं। मैं उसे इतना ही समझ पाऊँगा कि अनुवाद में कोई गलत अर्थ होगा तो उसे सुधार सकूँगा। इस प्रकार मैंने उन भाईयों के साथ गीता पढ़ना शुरू किया। दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोको में से

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोत्तभिजायते।।
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

(विषयो का चिन्तन करने वाले पुरुष को उन विषयों में आसक्ति पैदा होती हैं। फिर आसक्ति से कामना पैदा होती हैं और कामना से क्रोध पैदा होता हैं, क्रोध से मूढ़ता पैदा होती हैं, मूढ़ता से स्मृति-लोप होता हैं और स्मृति-लोप से बुद्धि नष्ट होती हैं। और जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती हैं उसका खुद का नाश हो जाता हैं।)

इन श्लोको को मेरे मन पर गहरा असर पड़ा। उनकी भनक मेरे कान में गूंजती ही रही। उस समय मुझे लगा कि भगवद् गीता अमूल्य ग्रंथ हैं। यह मान्यता धीरे-धीरे बढ़ती गयी, और आज तत्त्वज्ञान के लिए मैं उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ। निराशा के समय में इस ग्रंथ ने मेरी अमूल्य सहायता की हैं। इसके लगभग सभी अंग्रेजी अनुवाद पढ़ गया हूँ। पर एडविन आर्नल्ड का अनुवाद मुझे श्रेष्ठ प्रतीत होता हैं। उसमें मूल ग्रंथ के भाव की रक्षा की गयी हैं, फिर भी वह ग्रंथ अनुवाद जैसा नहीं लगता। इस बार मैंने भगवद् गीता का अध्ययन किया, ऐसा तो मैं कह ही नहीं सकता। मेरे नित्यपाठ का ग्रंथ तो वह कई वर्षो के बाद बना। इन्हीं भाईयों ने मुझे सुझाया कि मैं आर्नल्ड का बुद्ध-चरित पढ़ूँ। उस समय तक तो मुझे सर एडविन आर्नल्ड के गीता के अनुवाद का ही पता था। मैंने बुद्ध-चरित भगवद् गीता से भी अधिक रस-पूर्वक पढ़ा। पुस्तक हाथ में लेने के बाद समाप्त करके ही छोड़ सका।

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