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धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण

सुग्रीव और विभीषण

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9825

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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन


विभीषण के रूप में जब वे जन्म लेते हैं तब ब्रह्मा तथा शंकर रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद को वरदान देने के लिए आते हैं। फिर वहाँ पर बड़ा सुन्दर संकेत है कि तीनों की साधना समान थी, तीनों की तपस्या समान थी, लेकिन उस साधना और तपस्या के द्वारा उन तीनों ने अलग-अलग वस्तुएँ प्राप्त कीं। यहाँ पर भी मुख्य सूत्र वही है कि अगर कोई यह समझता हो कि भगवान् की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है तो यह सही नहीं है। इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि रावण ने जो किया, कुम्भकर्ण ने जो साधना की, वही साधना विभीषण ने भी की।

इसका तात्पर्य यह है कि हमारे पास वस्तुएँ तो सब वही हैं जिसके द्वारा हम भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन हम अपने जीव की साधना के द्वारा क्या प्राप्त करना चाहते हैं? इसका सबसे अधिक महत्व है। रावण प्रतापभानु के रूप में देहाभिमान है। जीव ने अपने आपको देह से अभिन्न मानकर, देह को ही जब ‘मैं’ स्वीकार कर लिया, तब वही देहाभिमान रावण के जीवन में ब्रह्मा और शंकर को देखने के बाद भी विद्यमान रहता है। रावण यही वरदान माँगता है कि यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हैं तो –

हम काहू के मरहिं न मारें। 1/176/4

हम किसी के मारने पर न मरें। इसका अर्थ यह है कि मैं देह हूँ क्योंकि देह के ही मरने का डर है, आत्मा तो अविनाशी है। रावण यदि अपने को अविनाशी आत्मा के रूप में देखता होता तो ‘मैं अमर हो जाऊँ’ यह आकांक्षा न रहती, पर पूर्वजन्म में जिस भूल के कारण उसका पतन हुआ, वह भूल उसमें और गहरी बनी हुई है। रावण एवं कुम्भकर्ण में देहाभिमान के दो पक्ष हो गये। एक ने नींद माँग ली और दूसरे ने भोग माँग लिया। जीवन के दो पक्ष दोनों ने स्वीकार कर लिये। कुम्भकर्ण ने छः महीने की नींद माँग ली और रावण ने शरीर को अमर बनाने की चेष्टा की। व्यंग्य यह है कि इतनी बड़ी तपस्या और साधना के बाद ऐसी वस्तु माँग ली कि जिसके माँगने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए जब शंकरजी वर देने के बाद लौटकर आये तो पार्वतीजी ने पूछा कि रावण ने क्या माँगा? शंकरजी ने कहा कि क्या बतायें कि क्या माँगा? रावण ने तो मुझसे अपनी मृत्यु ही माँग ली। ‘रामायण’ में शब्द आते हैं कि –

रावन मरन मनुज कर जाचा। 1/48/1

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