आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
गए-गुजरे लोग किसी का बहुत भला नहीं कर सकते। उनके लिए अपनी गाड़ी घसीटना ही भारी पड़ता है। वे सब तो दरिद्रता, दुर्बलता और अशिक्षा के दल-दल में धँसे रहने के कारण किसी की कुछ भलाई भी नहीं कर सकते। सेवा सहायता का सुयोग उनसे बन ही नहीं पड़ता। इतने पर भी यह संतोष की बात है कि तथाकथित समर्थों की तरह वे अपनी चिनगारी को दावानल बनाकर, सुविस्तृत वन प्रदेशों को जला डालने की दुष्टता तो नहीं कर पाते।
लोक चिंतन को दिग्भ्रांत करने में जितना साहित्यकारों, कलाकारों, धर्मोपदेशकों, नेतृत्व करने वालों ने सर्वसाधारण को भड़काया है, उतना कदाचित् ही संसार के समस्त अशिक्षित कर सके हों। संपत्तिवालों ने, कलाकारों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को अपने पैसे के बल पर खरीदा और कठपुतली की तरह नचाया है। कभी वैज्ञानिकों की स्वतंत्र सत्ता रही होगी और वे लोकोपयोगी आविष्कार करते रहे होंगे, पर अब तो साधनों के सम्मुख उन्हें भी आत्मसमर्पण कर देना पड़ा है। वे वही सोचते-खोजते हैं, जो उनके अन्नदाता उनसे चाहते हैं। किसी की बुद्धिमता ही नहीं, ईमान खरीद लेने तक का दावा तथाकथित सुसंपन्न करने लगे हैं। उन्हें देवताओं और भगवानों को भी अपने साधनों के बल पर कुछ भी करने के लिए विवश करने की जुर्रत होने लगी है।
साधनों की कमी पड़ने से कठिनाई बढ़ने की बात समझ में आती है, पर यह तथ्य और भी अधिक गंभीरतापूर्वक समझा जाना चाहिए कि उनका बाहुल्य होने पर भी यदि दुरुपयोग चल पड़े, तो विपत्तियाँ और भी अधिक बढ़ेंगी। चाकू न होने पर शाक तरकारी काटने का काम अन्य किसी उपकरण से भी लिया जा सकता है, पर कोई चमकीला, धारदार तथा कीमती चाकू पेट में घुस पड़े, तो समझना चाहिए अभाव की तुलना में वह उपलब्धि और भी अधिक भारी पड़ी।
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