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शुक्रवार व्रत कथा

गोपाल शुक्ल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :18
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9846

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इस व्रत को करने वाला कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने चने रखे, सुनने वाला सन्तोषी माता की जय - सन्तोषी माता की जय बोलता जाये


शुक्रवार व्रत की कथा


एक बुढ़िय़ा थी, उसके सात बेटे थे। छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था। बुढ़िय़ा मां छहो बेटों की रसोई बनाती, भोजन कराती और जो कुछ जूठन बचती वह सातवें को दे देती थी, परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार नहीं करता था। एक दिन वह बहू से बोला- “देखो मेरी मां को मुझ पर कितना प्रेम है।” वह बोली-“क्यों नहीं, सबका जूठा बचा हुआ जो तुमको खिलाती है।” वह बोला- “ऐसा नहीं हो सकता है। मैं जब तक आंखों से न देख लूं मान नहीं सकता।” बहू ने हंस कर कहा- “देख लोगे तब तो मानोगे?”

कुछ दिन बाद त्यौहार आया, घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गया, वह कपड़े में से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा, मां ने उनके लिए सुन्दर आसन बिछा नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें जिमाया। वह देखता रहा। छहों भोजन कर उठे तब मां ने उनकी झूंठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया। जूठन साफ कर बुढिय़ा मां ने उसे पुकारा- “बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा?”

वह कहने लगा- “मां मुझे भोजन नहीं करना, मै अब परदेस जा रहा हूं।”

मां ने कहा- “कल जाता हो तो आज चला जा।”

वह बोला- “हां आज ही जा रहा हूँ।” यह कह कर वह घर से निकल गया। चलते समय स्त्री की याद आ गई। वह गौशाला में कण्डे थाप रही थी।

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