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आचार्य श्रीराम शर्मा >> उन्नति के तीन गुण-चार चरण

उन्नति के तीन गुण-चार चरण

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :36
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9847

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समस्त कठिनाइयों का एक ही उद्गम है – मानवीय दुर्बुद्धि। जिस उपाय से दुर्बुद्धि को हटाकर सदबुद्धि स्थापित की जा सके, वही मानव कल्याण का, विश्वशांति का मार्ग हो सकता है।

आदर्शों और सिद्धांतों पर अड़े रहने, किसी भी प्रलोभन और कष्ट के दबाव में कुमार्ग पर पग न बढ़ाने, अपने आत्मगौरव के अनुरूप सोचने और करने, दूरवर्ती भविष्य के निर्माण के लिए आज की असुविधाओं को धैर्य और प्रसन्नचित्त से सह सकने की दृढ़ता का नाम आत्मबल है। जो वासना और तृष्णा को, स्वार्थ और सुविधा को ठोकर मारकर अपने लिए नहीं, लोकमंगल के लिए सदाचार से भरा प्रेम और आत्मीयता भरा जीवन जी सकता है, उस महामानव को ही आत्मबल संपन्न कहा जाएगा।

चरित्र के धनी, करुणा, दया से परिपूर्ण हृदय, उदारता और आत्मीयता से ओत-प्रोत व्यक्तित्व आत्मबल के ही प्रतीक हैं। संसार उनकी उपस्थिति से सुगंधित, सुरभित, समुन्नत और व्यवस्थित होता है। वे अपनी सामर्थ्य से दिशाएँ बदलने और हवाएँ पलटने में समर्थ होते हैं। आत्मबल वह क्षमता है, जिसका जितना अंश मनुष्य के पास होगा, उतना ही वह अपने विवेक को सजग कर सकने में समर्थ होगा। विवेक ही वह सत्ता है जो धन, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की भौतिक शक्तियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें सन्मार्ग गामी बनाती है, सदुद्देश्य और सत्प्रयोजनों में प्रवृत्त करती है।

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