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अति  : अव्य० [सं०√अत् (गति) +इ] १. चरम सीमा तक पहुँचा हुआ। बहुत अधिक। विशेष—शब्दों के पहले उपसर्ग रूप में लगकर यह निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) मात्रा, मान आदि के विचार से बहुत अधिक। जैसे—अति उत्पादन, अति शीतल। (ख) नियम मर्यादा सीमा आदि से बढ़ा हुआ,जैसे—अतिक्रमण, अतिजीवन। (ग) साधारण से बहुत अधिक बढ़कर, जैसे—अतिकाय (मानव)। २. बहुत अधिकता से। ३.कुछ भी। बिलकुल। उदाहरण—भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग जाल-तुलसी। स्त्री० मर्यादा या सीमा का उल्लंघन करनेवाली अधिकता। बहुत ज्यादती। जैसे—अति किसी काम में अच्छी नहीं होती।
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अति बरवै  : पुं० [सं० अति+हिं० बरवै] वह छंद जिसके पहले और तीसरे चरणों में बारह-बारह तथा दूसरे और चौथे चरणों में नौ-नौ मात्राएँ हो।
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अति-दंतुर  : वि० [सं० प्रा० स०] जिसके दाँत बहुत बड़े हों। बड़े-बड़े दाँतोवाला।
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अतिउक्ति  : स्त्री०=अत्युक्ति।
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अतिउत्पादन  : पुं० [सं० प्रा० स०] देश या समाज में जितने उत्पादन की खपत या उपयोग हो सकता हो, उससे बहुत अधिक उत्पादन होना। (ओवर-प्रोडक्शन)
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अतिकथ  : वि० [सं० अत्या० स०] बहुत बढ़ाचढ़ा कर कहा हुआ। पुं० १. बहुत बढ़ा-चढा कर कही हुई बात। २. वह जो जाति या समाज के नियम या बंधन न मानता हो।
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अतिकथन  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अतियुक्ति।
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अतिकथा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कही हुई बात। २. इधर-उधर की फालतू बात
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अतिकंदक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] हस्तिकंद नामक पौधा।
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अतिकर  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अधि-कर।
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अतिकान्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सुन्दर और प्रिय।
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अतिकाय  : वि० [सं० ब० स०] भारी डीलडौल वाला। विशालकाय। पुं० रावण का एक पुत्र जो लक्ष्मण के द्वारा मारा गया था।
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अतिकाल  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी कार्य के उपयुक्त या नियत समय के बीत जाने के बाद का समय।
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अतिकृच्छ  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक या विकट। २. बहुत अधिक कष्ट देने वाला। पुं० [सं० प्रा० स०) छः दिनों में पूरा होने वाला एक प्रकार का व्रत।
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अतिकृत  : वि० [सं० अति√ कृ (करना) +क्त] जिसे पूरा करने में मर्यादा का अतिक्रमण किया गया हो।
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अतिकृति  : स्त्री० [सं०√अति कृ+क्तिन्] १. मर्यादा का अतिक्रमण या उल्लंघन। २. पचीस वर्णों का एक वर्णवृत्त।
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अतिक्रम  : पुं० [सं० अति√ कम् (गति) +घञ] १. सीमा से आगे बढ़ना। २. किसी के ऊपर से पैर ले जाते हुए पार जाना। लाँघना। ३.सबसे आगे बढ़ना। ४.अतिक्रमण का उल्लंघन करना।
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अतिक्रमण  : पुं० [सं० अति√क्रम+ल्युट्-अन्] १. उचित मर्यादा या सीमा से आगे बढ़ना। २. अपने अधिकार, कार्य-क्षेत्र आदि की सीमा पार करके ऐसी जगह पहुँचना जहाँ जाना या रहना अनुचित, मर्यादा-विरुद्ध या अवैध हो। सीमा का अनुचित उल्लंघन। (एन्क्रोचमेन्ट) ३. प्रबल आक्रमण। ४. समय का बीतना। ५. सबसे आगे निकलने या बढ़ने की क्रिया या भाव।
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अतिक्रांत  : भू० कृ० [सं० अति√क्रम+क्त) (भाव० अतिक्रान्ति)] १. जिसका अतिक्रमण या उल्लंघन किया गया हो। २. बीता हुआ अतीत। गत। पुं० बीती हुई बात या घटना।
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अतिक्रामक  : पुं० [सं० अति√ कम् +ण्वुल-अक] १. अपने अधिकार या मर्यादा या सीमा का अतिक्रमण का उल्लंघन करने वाला। २. दूसरों के अधिकारों या क्षेत्रों में हस्तक्षेप करनेवाला।
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अतिक्षिप्त  : वि० [सं० अति√क्षिप् (प्रेरणा) +क्त] बहुत दूर या सीमा के बाहर फेंका हुआ। पुं० शरीर के किसी नस के इधर-उधर हटने के कारण पड़नेवाली मोच।
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अतिगंड  : वि० [सं० आत्या० स०] जिसके कपोल या कपोल के ऊपर वाली हड्डी बड़ी हो। पुं० १. सत्ताईस योगों में से छठा योग। २. एक तारा। ३. बहुत कपोल। ४. वह जिसके बड़े-बड़े कपोल हों।
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अतिगत  : वि० [सं० अति√गम् (जाना) +क्त] १. अति तक पहुँचा हुआ। २. बहुत अधिक।
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अतिगति  : स्त्री० [सं० अति√गम्+क्तिन्] १. उत्तम गति। मुक्ति। मोक्ष।
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अतिगंध  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी गंध या उग्र तीव्र हो। पुं० १. चंपा का पेड़ या फूल। २. गंधक।
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अतिगव  : वि० [सं० अत्या० स० अच्] १. बहुत बड़ा मूर्ख। २. जिसकी व्याख्या या प्रशंसा न की जा सके। वर्णनातीत।
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अतिगुण  : वि० [सं० ब० स०] बहुत अच्छे गुणों वाला। पुं० [सं० प्रा० स०) अच्छा गुण।
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अतिगुरु  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत भारी।
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अतिघ  : पुं० [सं० अति√ हन् (हिंसा) +क] १. क्रोध। गुस्सा। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र।
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अतिघ्न  : वि० [सं० अति√हन्+टक्] बहुत अधिक नाश करनेवाला।
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अतिचरण  : पुं० [सं० अति√चर्(गति) +ल्युट्अन] १. दे०अतिचार। २. दे० ‘अतिक्रमण’।
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अतिचार  : पुं० [सं० अति√चर् (गति) +घञ] १. औचित्य या सीमा का उल्लंघन करके इधर उधर चलना या आगे बढ़ना। २. अपने अधिकार या अधिकृत सीमा के बाहर अनुचित रूप से अपने सुख सुभीते के लिए इस प्रकार आगे बढ़ना कि दूसरे के अधिकार या सुख सुभीते में बाधा पहुँचे। (ट्रान्सग्रेशन) ३. बौद्ध भिक्षुओं का अपने नियमों और विधानो का पालन छोड़कर इधर-उधर की अनुचित बातों में पड़ना या जाना।
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अतिचारी (रिन्)  : वि० [सं० अतिचार+इनि] १. अतिचार अथवा अतिक्रमण करनेवाला। २. सीमा का अनुचित रूप से उल्लंघन करनेवाला।
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अतिच्छत्र  : पुं, [सं० अत्या सं० ) तालमखाना।
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अतिच्छादन  : पुं० [सं० अति√छद् (ढकना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अतिछादित] (विषय सिद्धान्त आदि का) अपनी सीमा से इस प्रकार आगे बढ़ा हुआ होना कि आस-पास की मिलती-जुलती बातें भी उसके क्षेत्र में आ जाये। (ओवरलैपिंग)
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अतिजगती  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] तेरह वर्णों के वृत्तों की संज्ञा। जैसे—तारक, मंजुभाषिणी, माया आदि।
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अतिजन  : वि० [सं० प्रा० ब०] (स्थान) जहाँ मनुष्य न रहते हो। उजाड़। विरान।
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अतिजागर  : वि० [सं० ब० स०] १. सदा जागते रहने वाला। २. बहुत अधिक जागने वाला। ३. जागरुक। पुं० एक प्रकार का काला बगला।
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अतिजात  : वि० [सं० ब० स०] अपने कुल या वंश में बहुत श्रेष्ठ।
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अतिजीवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] साधारणतः अपने वर्ग के औरो का अंत हो जाने पर भी बना, वचा या जीवित रहना। (सरवाइवल)
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अतिजीवित  : भू० कृ० [सं० ब० स०] जिसने अति जीवन प्राप्त किया हो।
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अतिजीवी (विन्)  : पुं० [सं० अति√ जीव्(जीना) +णिनि] वह जिसने अतिजीवन का भोग किया हो। साधारण वय से अधिक समय तक जीता रहनेवाला प्राणी।
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अतितरण  : पुं० [सं० अति√तृ (तैरना, पार करना) +ल्युट्-अन] १. पार करना। २. पराभूत करना। हराना।
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अतितारी (रिन)  : वि० [सं० अति√तृ+णिनि] १. पार करनेवाला। २. विजयी।
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अतिथि  : पुं० [सं० अत्√(गति) +अथिन्] [वि० आतियेय, भाव, आतिथ्य] १. बिना पहले से तिथि, समय आदि की सूचना दिए हुए घर में ठहरने के लिए अचानक आ पहुँचनेवाला कोई प्रिय अथवा सत्कार योग्य व्यक्ति। २. किसी के यहाँ कुछ दिनों के लिए बाहर से आकर ठहरा हुआ व्यक्ति। अभ्यागत। मेहमान। पाहुन। (गेस्ट) ३. वह सन्यासी या साधु जो किसी स्थान पर एक रात से अधिक न ठहरे। ४. अग्नि। ५. यज्ञ के लिए सोमलता लानेवाला व्यक्ति।
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अतिथि क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] =आतिथ्य।
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अतिथि-गृह  : पुं०=अतिथिशाला।
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अतिथि-धर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] आवश्यक और उचित रूप से अतिथि की सेवा या सत्कार करने की क्रिया या भाव।
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अतिथि-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] अतिथि का आदर सत्कार। मेहमानदारी।
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अतिथि-यज्ञ  : पुं० [ष० त०] अतिथि का आदर-सत्कार जो पाँच महायज्ञों में से एक है। अतिथि-पूजा।
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अतिथि-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह भवन जो विशेष रूप से अतिथियों के ठहरने के लिए नियत हो। (गेस्ट हाउस)।
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अतिथि-सत्कार  : पुं० [सं० ष० त०] अतिथि की सेवा और स्वागत।
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अतिथिदेव  : वि० [ब० स०] जिसके लिए अतिथि देव स्वरूप हो। जो अतिथि को देवता स्वरूप मानकर उसका सत्कार करे।
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अतिदर्शी (शिन्)  : वि० [सं० अति√ दृश् (देखना) +णिनि] दूरदर्शी।
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अतिदिष्ट (शिन्)  : वि० [सं० अति√दिश् (बताना)+क्त] १. जिसमें या जिसका अतिदेशन हुआ हो। २. अवधि, क्षेत्र, सीमा आदि से आगे बढ़ा हुआ। ३.किसी और या दूसरे के स्थान पर रखा हुआ।
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अतिदेव  : पुं० [सं० आत्या०स०] वह जो सब देवताओं में श्रेष्ठ हो। जैसे—विष्णु, शिव आदि।
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अतिदेश  : पुं० [सं० अति√ दिश् (बताना) +घञ्] [वि० अतिदेशिक, अतिदिष्ट] १. प्रस्तुत विषय का अतिक्रमण करके दूसरे विषय पर जाना। २. एक विषय की किसी बात, नियम या धर्म का दूसरे विषय में किया जानेवाला आरोप। ३.किसी कार्य या बात की सीमा या अवधि आगे बढ़ाने की क्रिया या भाव। विस्तारण। (एक्स्टेंशन) ४. कई भिन्न या विरोधी बातों या वस्तुओं में कुछ विशेष तत्त्वों की होनेवाली समानता। (एनॉलोजी)
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अतिदेशन  : पुं० [सं० अति√दिश्+ल्युट्-अन] अतिदेश करने की क्रिया या भाव।
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अतिधन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं० प्रा०ब०] १. बहुत बड़ा योद्धा। २. एक वैदिक आचार्य।
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अतिधृत्ति  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] १. धृति छंद से अधिक अक्षर अर्थात् उन्नीस अक्षरवाला छंद-जैसे—शार्दूल, विक्रीड़ित आदि छंद। २. १९ की संख्या।
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अतिनाठ  : पुं० [सं० प्रा० स०] संकीर्ण राग का एक भेद।
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अतिनिर्वात  : पुं० [सं० निर्वात, निरा० स०, अतिनिर्वात, प्रा० स०] वह स्थिति जब किसी आधान के अंदर कहीं नाम को भी बात या वायु का कोई अंश नहीं रह जाता। (हाई वैक्यूम)
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अतिपत्ति  : स्त्री० [सं० अति√ पद् (गति) +क्तिन्] १. अतिक्रमण। २. समय का व्यतीत होना।
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अतिपत्र  : पुं० [सं० ब० स०] हस्तिकंद नामक पौधा।
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अतिपद  : वि० [सं० अत्या०स०] वह छंद जिसमें नियत चरणों या पदों से एक चरण या पद अधिक हो।
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अतिपन्न  : भू०कृ० [सं० अति√पद् (गति) +क्त] १. अतिक्रान्त। २. बीता हुआ। ३. भूला या छूटा हुआ।
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अतिपर  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हो।
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अतिपात  : पुं० [सं० अति√पत् (गति) +घञ्] १. हिंसा, विशेषतः गृहस्थों द्वारा अनजान में नित्य होनेवाली जीव हिंसा। २. अव्यवस्था। ३. विघ्न। ४. नियम या मर्यादा का उल्लंघन। ५. (समय का) बीत जाना। ६. घटना। ७. दुर्व्यवहार। ८. विरोध। ९. दुष्प्रयोग।
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अतिपातक  : पुं० [सं० अत्या० स०] धर्मशास्त्र में बताये नौ पातकों में से सबसे बड़ा पातक।
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अतिपाती (तिन्)  : वि० [सं० अति√पत्+णिनि] अतिपात करनेवाला या आगे बढ़ जानेवाला।
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अतिपात्य  : वि० [सं० अति√पत्+णिच्+यत्] स्थगित किए जाने के योग्य।
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अतिपावन  : वि० [सं० अति√पत् (गिरना) +ल्युट्-अन] बहुत अधिक पावन या पवित्र।
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अतिपुरुष  : पुं०=महापुरुष।
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अतिप्रजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अतिप्रजनित] देश या स्थान में जितनी जनता का निवास स्थान अच्छी तरह हो सकता हो, उससे कहीं अधिक जनता या जन संख्या होना। (ओवर पापुलेशन)।
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अतिप्रभंजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] अत्यन्त प्रचंड या तीव्र वायु।
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अतिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ऐसा प्रश्न जिसके पूछने से मर्यादा या अतिक्रमण हो। २. अनावश्यक प्रश्न।
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अतिबल  : वि० [सं० ब० स०] अत्यधिक बलवाला।
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अतिबला  : स्त्री० [अतिबल+टाप्] १. एक प्राचीन अस्त्र विद्या। २. ककही नामक एक पौधा। ३. एक पीली लता। शीतपुष्पा।
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अतिभव  : पुं० [सं० अति√भू० (होना)+अप्] १. वृद्धि। २. पराजय। हार।
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अतिभार  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक भार या बोझ। २. अर्थ की दृष्टि से वाक्य के बोझिल होने की अवस्था या भाव।
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अतिभारग  : वि० [सं० अतिभार√गम् (जाना) +ड] बहुत अधिक बोझ ढ़ोनेवाला। पुं० खच्चर।
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अतिभी  : स्त्री० [सं० अति√भी (डरना)+क्विप्] कड़कड़ाती हुई बिजली।
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अतिभू  : वि० [सं० अति√भू०+क्विप्] सबसे आगे बढ़ जानेवाला। पुं० विष्णु का एक नाम।
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अतिभूमि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अधिकता। २. श्रेष्टता। स्त्री० (अव्यय० स०) १. मर्यादा का उल्लंघन। २. सीमा का अतिक्रमण।
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अतिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उचित या नियत समय के उपरान्त भी किसी वस्तु या विषय का भोग करते चलना। २. बहुत दिनों तक किसी सम्पत्ति का इस रूप में भोग करना कि उसपर एक प्रकार का अधिकार या स्वत्व हो जाए। (प्रोस्क्रिफ्शन)
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अतिभोजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] आवश्यकता से अधिक भोजन करनेवाला।
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अतिमत  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा मत, विचार या सिद्धान्त जो सब जगह आदरपूर्वक मान्य समझा जाता हो। (डाँग्मा)
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अतिमति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक घमंड। अहंकार। २. हठ। जिद।
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अतिमर्त्य  : वि० [सं० अत्या० स०] १. मर्त्य लोक से परे का। पारलौकिक। २. जो इस लोक में न होता हो। अलौकिक।
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अतिमर्श  : पुं० [सं० अति√मृश् (स्पर्श)+घञ] बहुत ही निकट का संबंध। नजदीकी नाता।
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अतिमा  : स्त्री० [सं० अति से (कालिमा, महिमा आदि के अनुकरण पर] १. अति अथवा चरम सीमा तक पहुँचे हुए होने की अवस्था, गुण या भाव। २. अलौकिक तथा लोकोत्तर होने की ऐसी अवस्था जो आध्यात्मिक दृष्टि से आदर्श और सर्वोच्च हो तथा दैवी विभूतियों से युक्त हो।
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अतिमात्र  : वि० [सं० अत्या० स०] उचित मात्रा या परिमाण से अधिक। बहुत अधिक।
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अतिमानव  : पुं० [सं० , प्रा० स०] ऐसा कल्पित और आदर्श मनुष्य जिसमें साधारण मनुष्यों की अपेक्षा बहुत अधिक तथा अलौकिक गुण तथा शक्तियाँ हों। (सुपरमैन)
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अतिमानुष  : पुं०=अतिमानव।
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अतिमाय  : वि० [सं० अत्या० स०] माया से रहित। वीतराग।
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अतिमित  : वि० [सं० अति√मा (परिमाण)+क्त] १. जो नापा न जा सकता हो। २. आवश्यकता या उचित से अधिक नापा हुआ।
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अतिमुक्त  : वि० [सं० प्रा० स०] १. मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त। जीवन्मुक्त। २. विषय वासना से रहित। पुं० [सं० अत्या०स०) १. माधवी लता। मोगरा। २. मरूआ नामक पौधा। ३. तिनिश का वृक्ष।
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अतिमुक्तक  : पुं० [सं० अतिमुक्त+कन्]=अतिमुक्त।
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अतिमुशल  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक वक्र योग जिसमें मंगल एक नक्षत्र में अस्त होकर सत्रहवें या अठारहवें नक्षत्र पर अनुवक्र होता है। (ज्योतिष)
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अतिमूत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुमूत्र (रोग)।
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अतिमृत्यु  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. महामारी। २. [सं० अत्या० स०) मुक्ति। मोक्ष।
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अतियोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी मिश्रण में कोई चीज आवश्यकता या नियत मात्रा से अधिक मिलाना।
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अतिरंजन  : पुं० [सं० अति√रञ्जू (राग) +ल्युट्-अन] [भू० कृ० अतिरंजित] कोई बात बहुत अधिक बढा-चढ़ा कर कहने की क्रिया या भाव।
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अतिरंजना  : स्त्री० [सं० अति√रञ्जू णिच् +युच्-अन-टाप]=अतिरंजन।
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अतिरंजित  : भू० कृ० [सं० अति रञ्जू√णिच्+क्त] बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहा हुआ।
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अतिरथ  : पुं० [सं० अत्या० स०] बहुत बड़ा रथी या योद्धा।
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अतिरात्र  : पुं० [सं० प्रा० स० अच्] १. ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का एक गौण अंग। २. वह यज्ञ जो एक ही रात्रि में किया जाए। ३. चाक्षुष मनु के एक पुत्र का नाम।
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अतिरिक्त  : वि० [सं० अति रिच् (अधिक होना) +क्त] १. साधारणतः जितना होता हो या होना चाहिए, उससे अधिक। २. जितना काम में आता हो या आया हो उससे अधिक। (एक्स्ट्रा) ३.नियत, प्रचलित या साधारण से अधिक। जैसे—अतिरिक्त आय। (एक्सेस) ४.जो आवश्यकतावश बाद में जोड़ा या बढ़ाया गया हो। (एडिशनल) जैसे—अतिरिक्त कर। ५. अलग। भिन्न। क्रि० वि० किसी को छोड़कर। उसके सिवा। अलावा। (एकसेप्ट)
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अतिरिक्त पत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह विज्ञापन, समाचार या सूचना आदि जो अलग छापकर किसी समाचार पत्र के साथ बाँटी जाए। कोड़पत्र। (सप्लीमेंन्ट)
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अतिरिक्त-लाभ  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह लाभ जो साधारण या उचित लाभ से अतिरिक्त या अधिक हो। (एक्सेस प्राफिट)
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अतिरूप  : वि० सं० ब० स०) बहुत अधिक सुन्दर रूपवाला। परम सुन्दर।
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अतिरेक  : पुं० [स० अति√रिच्+घञ्] १. आवश्यकता से अधिक होने की अवस्था गुण या भाव। २. अनावश्यक अनुपयुक्त या व्यर्थ की अधिकता। जैसे—बुद्धि का अतिरेक। ३. उग्रता, गंभीरता विकटता आदि का आधिक्य या वृद्धि। (एग्रेवेशन) जैसे—औषध के प्रभाव के कारण रोग का होने वाला अतिरेक।
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अतिलंघन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० अतिलंघी] सीमा या मर्यादा का बहुत अधिक अतिक्रमण। उल्लंघन।
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अतिलंघी (घिन्)  : वि० [सं० अति√लंघ् (लांघना) +णिनि] अतिलंघन करनेवाला।
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अतिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] बुध ग्रह की चार प्रकार की गतियों में से एक।
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अतिवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० अति√वृत् (बरतना) +णिनि] बहुत अधिक आगे बढ़ा हुआ।
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अतिवर्त्तन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक आगे बढ़ने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज का बहुत अधिक होनेवाला वर्त्तन या व्यवहार।
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अतिवात  : पुं० [सं० प्रा० स०) वेगपूर्ण वायु (चण्डवात,तूफान और महावात) का सबसे अधिक उग्र, प्रचंड और सहायक रूप। (टेम्पेस्ट)
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अतिवाद  : पुं० [सं० अति√वद् (बोलना) +घञ्] [वि० अतिवादिक, अतिवादी] १. किसी विषय में औचित्य की सीमा या मर्यादा से बहुत आगे बढ़ जाने का अभ्यास या सिद्धान्त जो आतुरता, उग्रता आदि का सूचक है। (एक्स्ट्रीमिज्म) २. राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में यह मत या सिद्धांन्त की चाहे जैसे हो, सब प्रकार के दोष अभी दूर कर देने चाहिएँ। (रैडिकैलिज्म) ३. व्यर्थ की बकबक। ४. डींग।
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अतिवादिक  : वि० [सं० अतिवाद+ठन्-इक] अतिवाद-संबंधी। अतिवाद का।
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अतिवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अतिवाद+इनि] वह जो अतिवाद के सिद्धान्त मानता और उसके अनुसार चलता हो। (एक्स्ट्रीमिस्ट)
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अतिवाह  : पुं० [सं० अति√वह (ढोना) +घञ्] १. आत्मा का एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाना। २. परलोकवास। ३. वह नल या नाली जो आवश्यकता से अधिक पानी को बाहर निकालने के लिए होती है। ४. किसी नहर या नदी के बाँध से आवश्यकता से अधिक पानी को बाहर निकालने का मार्ग।
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अतिवाहित  : भू०कृ० [सं० अति√वह्+णिच्+क्त] बिताया हुआ।
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अतिविष  : वि० [सं० प्रा० ब०] जिसमें बहुत अधिक विष हो। बहुत जहरीला। पुं०=अतिविषा।
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अतिविषा  : स्त्री० [सं० अतिविष+टाप्] जहरीली औषधि। जैसे—वत्सनाग, अतोस आदि।
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अतिवृष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] इतनी अधिक वर्षा जो खेती बारी या धन-जन के लिए अनिष्टकारी सिद्ध हो।
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अतिवेध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत निकट का संबंध। २. एक ही दिन में दशमी और एकादशी दोनों होना।
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अतिवेल  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसकी सीमा बहुत दूर हो। अपार। असीम।
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अतिवेला  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अधिक विलंब। देर। २. अनुचित या अनुपयुक्त समय। कु-समय।
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अतिव्याप्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी लक्षण या कथन के अन्तर्गत लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के आ जाने का दोष। (साहित्य और तर्क) जैसे—सींगवाले पशु को गौ कहते हैं। में इसलिए उक्त दोष है। कि भेड़-बकरियों आदि को भी सींग होते हैं।
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अतिशय  : वि० [सं० अति√शी (सोना) +अच्] [भाव० अतिशयता, अतिशय्य] १. बहुत। ज्यादा। २. यथेष्ट। ३. आवश्यकता से बहुत अधिक। (एक्सेसिव) पुं० एक अलंकार जिसमें किसी वस्तु की उत्तरोत्तर सम्भावना या असम्भावना दिखलाई जाती है।
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अतिशयता  : स्त्री० [सं० अतिशय+तल्-टाप्] ‘अतिशय होने की अवस्था या भाव। परम अधिकता
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अतिशयनी  : स्त्री० [सं० अति शी+ल्युट्-अन-डीष्] एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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अतिशयी (यिन्)  : वि० [सं० अति √शी+णिनि] १. प्रधान। श्रेष्ठ। २. अत्यधिक। बहुत ज्यादा।
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अतिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० अतिशय-उक्ति, तृ० त०] १. बढ़ा-चढ़ाकर तथा अपनी ओर से बहुत कुछ मिलाकर कही हुई बात। (एग्जैजरेशन) २. एक अलंकार जिसमें किसी की निंदा, प्रशंसा आदि करते समय कोई बात साधारण से बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती है। (हाइपरबोल) जैसे—आपके मुँह से जो कुछ निकलता था, वही ब्रह्य वाक्य हो जाता था। (इसके रूपकातिशयोक्ति आदि कई भेद हैं।)
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अतिशयोपमा  : स्त्री० [सं० अतिशय-उपमा, तृ० त०] उपमा अलंकार का वह प्रकार या भेद जिसमें किसी वस्तु की उपमा एक चीज को छोड़कर और दूसरी किसी चीज से दी ही न जा सके।
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अतिशर्करी  : स्त्री० [सं० अत्या०स०] पंद्रह वर्णों के वृत्तों की संज्ञा।
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अतिशीतन  : पुं० [सं० अतिशीत, प्रा० स०,√णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अतिशीतित] आवश्यकता से अधिक शीतल या ठंडा करना। (ओवरकूलिंग)
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अतिशेष  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत कम बचा हुआ।
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अतिसंघ  : वि० [सं० अत्या० स०] १. प्रतिज्ञा का वचन भंग करनेवाला। २. आदेश, विधि आदि का उल्लंघन करनेवाला।
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अतिसंधान  : पुं० [सं० अति-सम धा√(धारण करना) +ल्युट्-अन] [कृ०अति-संधानित] जहाँ संधान करना, निशाना लगाना या वार करना हो, उससे अधिक या आगे बढ़कर आघात या वार करना। (ओवर हिटिंग) २. अतिक्रमण। ३.धोखा। छल।
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अतिसर  : वि० [सं० अति√सृ (गति] +अच्] अपनी गति से अधिक तीव्र चलनेवाला। पुं० प्रयत्न।
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अतिसर्जन  : पुं० [सं० अति√सृज् (सिरजना) +ल्युट्-अन] १. दान। २. त्याग। ३. विसर्जन। ४. वध। हत्या।
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अतिसर्पण  : पुं० [सं० अति√सृप् (गति) +ल्युट्-अन] १. तीव्र गति। तेज चलना। २. गर्भ में शिशु का जल्दी-जल्दी इधर-उधर हटना-बढ़ना।
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अतिसर्व  : वि० [सं० अत्या०स०]=अतिश्रेष्ठ। पुं० ईश्वर।
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अतिसामान्य  : वि० [सं० प्रा० स०] अत्यन्त साधारण। मामूली। पुं० ऐसी बात जिसका भाव या अर्थ सामान्य से कुछ अधिक और भिन्न हो। वह उक्ति जो वक्ता के उद्दिष्ट अर्थ से कुछ बढ़-चढ़कर या बाहर हो। (न्याय)
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अतिसार  : पुं० [सं० अति√सृ (गति) +घञ) एक रोग जिसमें भोजन न करने के कारण पेट में दर्द होता और पतले-पतले दस्त आते हैं। (डायरिया)
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अतिसारी (रिन्)  : वि० [सं० अतिसार+इनि] १. जो अतिसार रोग से पीड़ित हो। २. अतिसार संबंधी।
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अतिसांवत्सर  : वि० [सं० अत्या०स०] एक वर्ष से अधिक दिनों का।
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अतिसै  : वि० =अतिशय।
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अतिस्थूल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत मोटा। २. मोटी बुद्धिवाला। पुं० शरीर में चरबी बढ़ने का रोग।
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अतिस्पर्श  : वि० [सं० अत्या०स०] १. कंजूस। २. नीच। कमीना। पुं० (व्याकरण में) य,र,ल,व तथा स्वर वर्ण जिनका उच्चारण करते समय जीभ का तालु से बहुत कम स्पर्श होता है।
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अतिहत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूर्ण रूप से नष्ट हुआ हो या नष्ट किया गया हो। २. अचल। स्थिर।
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अतिहसित  : पुं० [सं० अति√हस् (हँसना) +क्त] हास के छः भेदों में से एक। बहुत जोरों की हँसी।
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अतिहायन  : पुं० [सं० अति√हा (त्याग) +ल्युट्-अन, नि० सिद्धि] १. वृद्धावस्था के कारण होनेवाली ऐसी स्थिति जिसमें कुछ काम-धंधा न हो सके। २. बहुत अधिक पुराना या जीर्ण होना। ३. पतन या ह्वास होना। (सुपरएनुएशन)
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