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आश  : पुं० [सं० आ√शंस् (खाना)+घञ्] आहार। भोजन। जैसे—प्रात-राश-प्रातःकाल का भोजन। स्त्री० =आशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आशक  : वि० [सं० आ√शंस्+ण्वुल्-अक] १. खानेवाला। २. भोगनेवाला। भोक्ता। पुं० आशिक।
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आशंकनीय  : वि० [सं० आ√शंक् (संदेह करना)+अनीयर] जिसके संबंध में आशंका हो या की जा सकती हो।
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आशंका  : स्त्री० [सं० आ√शंक्+अ-टाप्] [वि० आसंकित] १. भय। डर। शंका। संदेह। २. वह चिंतापूर्ण मानसिक स्थिति जो वास्तविक या कल्पित अनिष्ट की संभावना होने पर उत्पन्न होती है और जिसमें मनुष्य भयभीत तथा विकल हो जाता है। खटका खुटका। (एप्रिहेन्शन)
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आशंकित  : भू० कृ० [सं० आ√शंक्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे किसी प्रकार की आशंका हुई हो। २. (विषय) जिसके संबंध में आशंका हुई हो। जैसे—आशंकित युद्ध पास आता हुआ दिखाई देता है।
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आशंकी (किन्)  : पुं० [सं० आ√शंक्+णिनि] १. वह जिसे किसी प्रकार की आशंका हो। २. वह जिसे आशंका करने का अभ्यास हो।
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आशन  : वि० [सं० आ√शंस्+णिच्+ल्यु-अन] खिलानेवाला। पुं० १. अशन नामक वृक्ष। २. वज्र।
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आशना  : वि० [फा०] [भाव० अशनाई] १. जिससे जान-पहचान या हो। २. जिससे परिचय प्रेम या प्रीति हो। ३. (पुरुष या स्त्री) जिससे अनुचित या अवैध प्रेम-संबंध हो।
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आशय  : पुं० [सं० आ√शी (शयन करना+घञ्] १. ठहरने, रहने आदि का स्थान। २. शरीर के अंदर थैली के आकार का कोई ऐसा अंग या अवकाश जिसमें कोई विशिष्ट क्रिया करनेवाला तत्त्व या शक्ति रहती हो। (रिसैप्टैकल्) जैसे—आमाशय, गर्भाशय, पित्ताशय, मूत्राशय आदि। ३. मन। हृदय। ४. मन में रहनेवाला वह उद्देश्य, भाव या विचार जो कोई काम करने या बात कहने के लिए प्रवृत्त करता है। (इन्टेन्शन) जैसे—मैंने उसे मार डालने के आशय से उस पर प्रहार नहीं किया था। ५. उक्ति कथन आदि से निकलनेवाला अर्थ या उसका सारांश। मतलब। जैसे—उनके अँगरेजी भाषण का आशय सब लोगों को सरल हिंदी में समझा दिया गया था। ६. धन संपत्ति। वैभव। ७. अच्छा भाग्य। ८. कामना या वासना।
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आशर  : पुं० [सं० आ√शु (हिसा)+अच्] १. राक्षस। २. अग्नि। ३. वायु। हवा।
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आशव  : पुं० [सं० आशु+अण्] १. आशु का भाव। तेजी। वेग। २. दे० ‘आसव’।
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आशंसन  : पुं० [सं० आ√शंस् (स्तुति)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आशंकित] १. इच्छा या कामना करना। २. कहना बतलाना या घोषित करना। ३. तारीफ या प्रशंसा करना।
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आशंसा  : स्त्री० [सं० आ√संस्+-टाप्] १. किसी चीज या बात की अपेक्षा या आवश्यकता। २. इच्छा। कामना। ३. आशा, विशेषतः ऐसी आशा जिसकी पूर्ति आवश्यकता, औचित्य आदि के विचार से बहुत कुछ संभावित हो या जो जल्दी पूरी होती हुई जान पड़े। (एक्सपेक्टेशन) ४. उल्लेख, कथन या चर्चा। ५. संदेह। शक। ६. तारीफ। प्रशंसा। ७. आदर-सत्कार। अभ्यर्थन।
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आशंसित  : भू० कृ० [सं० आ√शंस्+क्त] १. जो अपेक्षित या अभिलषित हो। २. कहा या बतलाया हुआ। ३. जिसकी प्रशंसा या बढ़ाई की गई हो।
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आशंसी (सिन्)  : वि० [सं० आ√शंस्+णिनि] १. इच्छा करनेवाला। २. घोषणा करनेवाला। ३. प्रशंसा करनेवाला।
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आशंसु  : वि० [सं० आ√शंस्+उ] =आशंसी।
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आशा  : स्त्री० [सं० आ√अश्(व्याप्ति)+अच्-टाप्] १. किसी भावी अभीष्ट या प्रिय कार्य या बात के संबंध में मन में उत्पन्न होनेवाला यह भाव कि यह जल्दी ही पूरी हो जायगी या हो जानी चाहिए। उम्मेद। (होप) जैसे—आशा है कि आप अब जल्दी ठीक हो जायँगे। मुहावरा—आशा टूटना=आशा न रह जाना। आशा देना-यह विश्वास कराना कि अमुक अभीष्ट, उद्देश्य या कार्य सिद्ध हो जायेगा। आशा पूरी होना-आशा के अनुसार काम पूरा होना। आशा बँधना=आशा पूरी होने के कुछ लक्षण दिखाई देना या संभावना होना। २. दिशा। ३. दक्ष की एक कन्या। ४. संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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आशा-गज  : पुं० [ष० त०] दिग्गज।
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आशा-जनक  : वि० [ष० त०] (ऐसे कार्य, बात या लक्षण) जिनसे किसी काम के पूरे हो जाने की आशा की जा सकती हो।
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आशा-मुखी  : वि० [सं० आशा-मुख] किसी आशा से किसी की ओर देखनेवाला।
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आशाढ़  : पुं० =आषाढ़।
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आशातीत  : वि० [आशा-अतीत, द्वि० त०] आशा से अधिक या बढ़कर। बहुत अधिक।
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आशापाल  : पुं० [सं० आशा√पाल् (पालनकरना)+णिच्+अण्] दिक्पाल।
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आशावादिता  : स्त्री० [सं० आशावादिन्+तल्-टाप्] १. आशावादी होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘आशावाद’।
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आशावादी (दिन्)  : वि० [सं० आशावाद+इनि] १. आशावाद संबंधी। २. सदा अच्छी बातों की आशा करनेवाला। (आँप्टिमिस्ट) पुं० वह जो आशावाद का अनुयायी और माननेवाला हो। (अप्टिमिस्ट)
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आशिक  : वि० [अ० आशिक, मि० सं० आसक्त] [भाव० आशिकी] १. इश्क या प्रेम करनेवाला। २. किसी के प्रेम में पगा हुआ। अनुरक्त। आसक्त। ३. काम-वासना के वश में होकर किसी की ओर प्रवृत्त होनेवाला। पुं० =प्रेमी।
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आशिंजन  : पुं० [सं० आ√शिञ्ञ् (अव्यक्त शब्द करना)+ल्युट्-अन] गहनों का झंकार।
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आशिंजित  : भू० कृ० [सं० आ√शिञ्ज्+क्त] झनकार करता हुआ। (गहना)।
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आशित  : वि० [सं० आ√अश् (खाना)+क्त] १. (पदार्थ) जो खाया गया हो। २. (व्यक्ति) जो भोजन कर चुका हो। ३. बहुत खाने की इच्छा रखनेवाला। पेटू। पुं० भोजन करना। खाना।
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आशिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० आशु+इमानिच्] तीव्रता। तेजी।
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आशियाना  : पुं० [फा० आश्यानः] १. चिडियों का घोंसला। नीड़। २. लाक्षणिक अर्थ में रहने का स्थान।
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आशिवन्  : पुं० [सं० अश्विनी+अण्-ङीष्, आश्विनी+अण्] भादों और कार्तिक के बीच में पड़नेवाला महीना। क्वार।
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आशिषाक्षेप  : पुं० [सं० आशिश्-आक्षेप, ष० त०] आचार्य केशव के अनुसार एक काव्यालंकार जिसमें दूसरे का हित दिखलाते हुए ऐसी बातों की शिक्षा दी जाए जिससे वास्तव में अपने ही दुःख की निवृत्ति हो।
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आशिष् (श्)  : स्त्री० [सं० आ√शास् (इच्छा)+क्विप्, इत्व] १. आशीर्वाद। असीस। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी प्रकार का आर्शीवाद प्राप्त करने की कामना का उल्लेख होता है।
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आशी (शिन्)  : वि० [सं० आश+इनि] [स्त्री० आशिनी] खानेवाला। भक्षक। स्त्री० [सं० आ√शृ (हिंसा)+क्विप्, पृषो० सिद्धि] १. साँप का विषैला दाँत। २. वृद्धि नाम की औषधि। पुं० आशीर्वाद। उदाहरण—मुझ अंचलवासी को तुमने शैशव में आशी दी तुमने।—पंत।
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आशी-विष  : पुं० [सं० ब० स०] सर्प। साँप।
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आशीर्वचन  : पुं० [सं० आशिश्-वचन, ष० त०] किसी के कल्याण की कामना करते हुए कहे जानेवाले शुभवचन। आशीर्वाद।
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आशीर्वाद  : [सं० आशिश्-वाद, ष० त०] किसी की मंगल कामना के लिए बड़ों की ओर से कहे हुए शुभ-वचन।
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आशीष  : पुं० दे० ‘आशिष्’।
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आशु  : पुं० [सं०√अश् (व्याप्ति)+उण्] १. सावन-भादों में होनेवाला एक प्रकार का धान। आउस। पाटल। साठी। २. घोड़ा। अव्य० जल्दी। शीघ्र।
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आशु-कवि  : पुं० [मध्य० स०] तुरंत कविता बनाने में समर्थ कवि। वह कवि जो किसी दिए हुए विषय पर अथवा किसी विशेष स्थिति में तत्काल कविता की रचना करता हो।
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आशु-तोष  : वि० [ब० स०] बहुत जल्दी या सहज में प्रसन्न हो जानेवाला। पुं० शिव।
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आशु-पत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह पत्र जो भेजे जानेवाले (प्रेषिती) को बहुत जल्दी पहुँचाया जाय। (एक्सप्रेस लेटर)
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आशुग  : वि० [सं० आशु√गम् (जाना)+ड] १. बहुत तेज चलनेवाला। शीघ्रगामी। २. (पत्र, तार आदि) जो पानेवाले के पास बहुत जल्दी पहुँचाया जाने को हो। (एक्सप्रेस) पुं० वायु। हवा। २. तीर। वाण।
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आशुगामी (मिन्)  : वि० [सं० आशु√गम्+णिनि] तेज चलनेवाला। पुं० सूर्य।
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आश्चर्य  : पुं० [सं० आ√चर् (गति)+यत्, सुट्] [वि० आश्चर्यित] मन का वह कुतूहलपूर्ण भाव या स्थिति जो कोई अद्भुत, अप्रत्याशित, असाधारण या विलक्षण बात या वस्तु सहसा देखने अथवा ऐसी घटना घटित होने पर इसलिए होती है कि उसका कारण, रहस्य या स्वरूप समझ में नही आता। अचरज। अचंभा। ताज्जुब। विस्मय। (सर्प्राइज) विशेष—हमारे यहाँ साहित्य में यह नौ स्थायी भावों में से एक माना गया है।
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आश्चर्यित  : वि० [सं० आश्चर्य+णिच्+क्त] जिसे आश्चर्य हुआ हो। चकित।
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आश्ना  : वि० =आशना।
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आश्नाई  : स्त्री० =आशनाई।
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आश्म  : वि० [सं० अश्मन्+अण्] १. अश्म (पत्थर) संबंधी। पत्थर का। २. पत्थर का या पत्थर से बना हुआ।
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आश्मन  : वि० [सं० अश्मन्+अण्] =आश्म। पुं० सूर्य का सारथि अर्थात् अरुण।
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आश्मरिक  : वि० [सं० अश्मरी+ठञ्-इक] १. अश्मरी संबंधी। २. जिसे अश्मरी या पथरी का रोग हो। पुं० पथरी नामक रोग।
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आश्मिक  : वि० [सं० अश्मन्+ठण्-इक] १. पत्थर संबंधी। पत्थर का। २. पत्थरों से युक्त। पथरीला। ३. पत्थर ढोनेवाला। ४. पत्थर से बना हुआ।
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आश्रम  : पुं० [सं० आ√श्रम्(तपस्या करना)+घञ्] [वि० आश्रमी] १. प्राचीन भारत में, वनों में वह स्थान जहाँ ऋषि-मुनि कुटी बनाकर रहते और तपस्या करते थे। जैसे—कण्व ऋषि या भरद्वाज मुनि का आश्रम। २. आज-कल साधु-संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों, धार्मिक यात्रियों के रहने का कोई ऐसा विशिष्ट स्थान या भवन जिसमें लोग सासांरिक झंझटों से बचकर शांति-पूर्वक रह सकते हों। (एसाइलम) जैसे—श्री अरविंद आश्रम अथवा अनाथाश्रम विधवाश्रम आदि। ३. स्मृतियों आदि में बतलाई हुई जीवन यापन की वह व्यवस्था जिसमें सौ वर्षों की पूरी आयु चार समान भागों में बाँटकर प्रत्येक के अलग-अलग कर्त्तव्य कर्म और विधान बतलाये गये हैं। यथा-ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। ४. विष्णु का एक नाम।
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आश्रम-धर्म  : पुं० [ष० त०] स्मृतियों में बतलाये हुए चारों आश्रमों (दे० आश्रम) में से प्रत्येक के लिए निश्चित अलग अलग कर्त्तव्य कर्म।
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आश्रमवासी (सिन्)  : वि० [सं० आश्रम√वस्(बसना)+णिनि] आश्रम में रहनेवाला। पुं० वानप्रस्थ।
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आश्रमिक  : वि० [सं० आश्रम+ठन्-इक] १. आश्रम संबंधी। आश्रम का। २. आश्रम में रहनेवाला। ३. आश्रम धर्म का पालन करनेवाला।
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आश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० आश्रम+इनि] १. आश्रम संबंधी। आश्रम का। २. किसी आश्रम (देखें) में रहनेवाला या उससे युक्त। जैसे—संन्यासाश्रमी।
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आश्रय  : पुं० [सं० आ√श्रि (सेवा करना)+अच्] [वि० आश्रयी] १. वह जिस पर कुछ टिका या ठहरा हो। आधार। २. वह जिसका सहारा लेकर या जिसके आसरे पर रहा जाय। अवलंब। सहारा। ३. ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जो किसी को निश्चित, शांत और सुखी रखकर उसके अस्तित्व या निर्वाह में सहायक हो सके। अथवा जिसकी शरण में रहने पर संकटों आदि से रक्षा हो सके। शरण देनेवाला तत्त्व या स्थान (शेल्टर) जैसे—(क) सब प्रकार के तापों से बचने के लिए ईश्वर का आश्रय लेना। (ख) किसी समय अमेरिका में सब प्रकार के राजनीतिक पीड़ितों को आश्रय मिलता था। ४. कोई ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जिसमें किसी प्रकार के गुण या विशिष्टता का निवास हो या जिसके आधार पर वह गुण या विशेषता ठहरी हो। जैसे—साहित्य में यदि नायक के रूप में उत्पन्न होनेवाले प्रेम का वर्णन हो तो नायक उस प्रेम का आश्रय माना जाएगा। (जिसके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है,उसे साहित्यमें आलंबन कहते हैं) ५. उक्त आधार पर बौद्ध दर्शन में पाँचों ज्ञानेंद्रियों और मन जिनमें सुख-दुख अथवा उनके आलंबनों आदि की अनुभूति ज्ञान का परिचय होता है। ६. व्याकरण में उद्देश्य नामक तत्त्व जिसके संबंध में कुछ विधान किया जाता है अथवा जिसके आधार पर विधेय स्थित रहता है। ७. ठहरने रहने आदि का कोई सुरक्षित स्थान। ८. घर। मकान। ९. जड़। मूल। १. लगाव। संपर्क। ११. बहाना। मिस। १२. निकटता। समीपता।
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आश्रयण  : पुं० [सं० आ√श्रि+ल्युट-अन] किसी का आश्रय लेने या किसी को आश्रय देने की क्रिया या भाव। सहारा लेना या देना।
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आश्रयासिद्ध  : वि० [सं० आश्रय-असिद्ध, ब० स०] (कथन या तर्क) जिसका आश्रय या आधार असिद्ध अर्थात् गलत हो। फलतः मिथ्या और अमान्य।
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आश्रयासिद्धि  : स्त्री० [सं० आश्रय-सिद्धि, ष० त०] न्यायशास्त्र में किसी बात के आश्रयासिद्ध होने की अवस्था या भाव। (इसकी गणना हेत्वाभास में हुई है)।
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आश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० आ√श्रि+इनि] १. किसी का आश्रय या सहारा लेनेवाला। २. आश्रय में रहनेवाला।
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आश्रव  : पुं० [सं० आ√श्रु (सुनना, जाना)+अप्] १. किसी की कोई बात सुनकर उसके अनुसार काम करना। किसी के कहने पर चलना। २. अंगीकार या ग्रहण करना। ३. नदी की धारा या बहाव। ४. अपराध। दोष। ५. कष्ट। क्लेश। ६. जैन और बौद्ध दर्शनों में कोई ऐसी बात जो जीव के बंधन का कारण हो अथवा उसके मोक्ष में बाधक हो। जैसे—जैनों में पापाश्रव और पुण्याश्रव अथवा बौद्धों में अविद्याश्रव कायाश्रव आदि।
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आश्रित  : वि० [सं० आ√श्रि+क्त] १. किसी के सहारे, टिका, ठहरा या रुका हुआ। २. किसी की देख-रेख या शरण में रहकर अपना निर्वाह या रक्षा करनेवाला। ३. अपने भरण-पोषण आदि के लिए किसी दूसरे व्यक्ति के भरोसे रहनेवाला। पं० १. न्याय-दर्शन में अनित्य द्रव्यों की वह अवस्था जिसमें वे किसी न किसी रूप में एक दूसरे का आश्रय लेकर रहते और एक दूसरे के सहारे अपना काम करते हैं। २. दास। गुलाम। ३. नौकर। सेवक। ४. आज-कल वह व्यक्ति जो अपनी किसी शारीरिक असमर्थता, हीनता आदि के कारण किसी दूसरे की देख-रेख में रहता हो। (वार्ड) जैसे—आजकल उनके पास दो बालक (अथवा चार विधवाएँ) आश्रित हैं।
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आश्रुत  : भू० कृ० [सं० आ√श्रु+क्त] १. सुना हुआ। २. ग्रहण या स्वीकार किया हुआ। गृहीत या स्वीकृत। ३. जिसे या जिसके संबंध में कोई प्रतिज्ञा की गई हो या वचन दिया गया हो।
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आश्रुति  : स्त्री० [सं० आ√श्रु+क्तिन्] १. सुनने की क्रिया या भाव। २. ग्रहण या स्वीकार करना। ३. प्रतिज्ञा करना या वचन देना।
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आश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√श्लिष् (आलिंगन करना)+क्त] १. गले से लगा या लगाया हुआ। २. लिपटा या सटा हुआ। साथ लगा हुआ।
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आश्लेष  : पुं० [सं० आ√श्लिष्+घञ्] १. गले लागना। आलिंगन। २. लगाव। संपर्क।
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आश्लेषण  : पुं० [सं० आ√श्लिष्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आशिलष्ट, आश्लेषित] १. मिश्रित करना। मिलाना। २. मिश्रण। मिलावट। ३. गले लगाना। आलिंगन।
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आश्लेषा  : पुं० [सं० अश्लेषा] =श्लेषा (नक्षत्र)।
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आश्लेषित  : भू० कृ० [सं० आश्लेष+इतच्] १. मिलाया या लगाया हुआ। २. गले लगाया हुआ। आलिंगित।
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आश्व  : वि० [सं० अश्व+अण्] १. अश्व या घोड़े से संबंध रखनेवाला। २. घोड़ों द्वारा ढोया अथवा उनसे खींचा जानेवाला। पुं० घोड़ों का समूह।
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आश्वत्थ  : वि० [सं० अश्वत्थ+अण्] १. अश्वत्थ (पीपल) से संबंध रखनेवाला। २. अश्वत्थ-संबंधी। पुं० पीपल का फल।
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आश्वमेघिक्  : वि० [सं० अश्वमेघ+ठञ्-इक] अश्वमेध-यज्ञ से संबंध रखनेवाला।
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आश्वयुज  : पुं० [सं० अश्वयुज्+अण्-ङीष्, आश्वयुजी+अण्] आश्विन या क्वार नाम का महीना।
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आश्वलक्षणिक  : पुं० [सं० अश्वलक्षण+ठञ्-इक] घोड़ों के अच्छे-बुरे लक्षण पहचाननेवाला व्यक्ति। शालिहोत्री।
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आश्वस्त  : भू० कृ० [सं० आ√श्वस् (जीना)+क्त] जिसे आश्वासन मिला हो।
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आश्वास  : पुं० [सं० आ√श्वस्+घञ्] [भू० कृ० आश्वस्त, कर्त्ता आश्वासक] १. श्वास लेना। सांस खींचना। २. यह कहना कि तुम्हारें लिए घबराने या डरने की बात नहीं है। ढारस। तसल्ली। सांत्वना। उदाहरण—तुम्हारी ही विधि पर विश्वास हमारा चिर आश्वास।—पंत। ३. कथा आदि का कोई भाग।
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आश्वासक  : वि० [सं० आ+श्वस्+णिच्+ण्वुल्-अक] आश्वासन देनेवाला। पुं० कपड़ा। वस्त्र।
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आश्वासन  : पुं० [सं० आ√श्वस्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० आश्वसनीय, भू० कृ० आश्वासित, आश्वास्य] १. कष्ट में पड़े हुए व्यक्ति से कहना कि डरो मत, सब ठीक हो जायेगा। दिलासा या धैर्य देना। २. किसी का कोई काम पूरा करने के लिए अथवा उस काम में सहायक होने के लिए दिया जानेवाला वचन। (एश्योरेन्स)
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आश्वासनीय  : वि० [सं० आ√श्वस्+णिच्+अनीयर] १. (व्यक्ति) जिसे आश्वासन दिया जा सके। २. (विषय) जिसके लिए आश्वासन दिया जा सके।
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आश्वासित  : भू० कृ० [सं० आ√श्वस्+णिच्+क्त] सांत्वना पाया हुआ। दिलासा पाया हुआ। जिसे आश्वासन दिया गया हो या मिला हो।
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आश्वासी (सिन्)  : वि० [सं० आ√श्वस्+णिनि] आश्वासन देनेवाला। आश्वासक। २. अपने आप पर दृढ़ विश्वास रखनेवाला।
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आश्वास्य  : भू० कृ० [सं० आ√श्वस्+णिच्+यत्]-आश्वासनीय।
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आश्विक  : वि० [सं० अश्व+ठ़ञ्-इक] —आश्व। पुं० -अश्वारोही सैनिक। सवार।
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आश्विनेय  : वि० [सं० अश्विनी+ढक्-एय] १. अश्विनी संबंधी। अश्विनी का। २. अशिवनी से उत्पन्न। पुं० १. अश्विनीकुमार। २. पाँचों पांडवों में के नकुल और सहदेव।
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