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कान  : पुं० [सं० कण, पा० प्रा० कण्ण, पं० कन्न, उ० गु० मरा० कान, कन्न, कनु, सि० कण] १. प्राणियों की वह इंद्रिय जिसके द्वारा वे शब्द सुनते हैं। श्रवण की इंद्रिय। श्रुति। श्रोत्र। विशेष—यह इंद्रिय सिर में प्रायः आँखों के दोनों ओर होती है। जो प्राणी अंडे देते है उनके कान प्रायः अन्दर धँसे होते हैं, और जो प्रत्यक्ष सन्तान का प्रसव करते हैं उनके कान बाहर निकले हुए होते हैं। मुहावरा—कान उठाना, ऊँचे करना या खड़े करना=पशुओं आदि के संबंध में शत्रु की आहट मिलने या संकट की संभावना होने पर कान ऊपर उठाना जो उनके सचेत होने का सूचक है। कान उड़ जाना या उड़े जाना=कान फटना (दे०)। (किसी के) कान उमेठना-दंड देने के हेतु किसी का कान मरोड़ना या मसलना। (अपने) कान उमेठना-भविष्य में कोई काम न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करना। (किसी बात पर) कान करना=ध्यानपूर्वक कोई बात सुनना और उसके अनुसार आचरण करना। कान कतरना=कान काटना। (दे०)। (किसी के) कान काटना=चालाकी या धूर्त्तता में किसी से बहुत बढ़कर होना। जैसे—ये तो बड़े-बड़े धूर्तों के कान काटते हैं। कान का मैल निकलवाना=अच्छी तरह बात सुन सकने के योग्य बनना। (व्यंग्य) जैसे—जराकान का मैल निकलवा लो, तब तुम्हें सुनाई पड़ेगा। (अपने) कान खड़े करना=चौकन्ना या सचेत होना। (दूसरे के) कान खड़े् करना=चौकन्ना या सचेत करना। कान खाना या खा जाना=बहुत शोरगुल या हो-हल्ला करके तंग या परेशान करना। (किसी के) कान खोलना=किसी को चौकन्ना या सजग करना। (किसी बात पर) कान देना या धरना=ध्यान से किसी की बात सुनना और उसके अनुसार आचरण करना। (किसी का) कान धरना=१. जे० कान उमेठना। २. दे० कान पकड़ना कान न दिया जाना=इतना जोर का करूण या विकट शब्द होना कि सहा न जा सके। कान पकड़ना=कान उमेठना (दे०)। किसी को कहीं से कान पकड़ कर निकाल देना=अनादरपूर्वक या बेइज्जत करके किसी को कहीं से निकाल या हटा देना। (अपने) कान पकड़ना=किसी प्रकार का कष्ट या दंड भोगने पर भविष्य में वैसा काम न करने अथवा सचेत रहने की प्रतिज्ञा करना। (किसी के) कान पकड़ना=किसी को दोषी पाकर उसे भविष्य के लिए सचेत करना और कड़े दंड की धमकी देना। कान पर जूँ रेंगना=कोई घटना या बात हो जाने पर (उदासीनता,उपेक्षा आदि के कारण) उसका कुछ भी ज्ञान या परिचय न होना। कान पाथना=चुपचाप और बिना विरोध किये, सिर झुकाकर कहीं से चले या हट जाना। (किसी के) कान फूँकना=(क) किसी को अपना चेला बनाने के लिए उसे दीक्षा देना। (ख) दे० (किसी के) कान भरना। कान या कान का परदा फटना=घोर शब्द होने के कारण कानों को बहुत कष्ट होना। कान बजना=कान में साँय-साँय शब्द सुनाई पड़ना जो एक प्रकार का रोग है। (किसी के) कान भरना=किसी के विरुद्ध किसी से ऐसी बातें चोरी से कहना कि वे बातें उसके मन में बैठ जायँ। कान मलना=दे० कान उमेठना (किसी के) कान में कौड़ी डालना=किसी को अपना दास या गुलाम बनाना। (प्राचीन काल में दासता का चिन्ह्र) (किसी के) कान में (कोई बात) डाल देना=कोई बात कह, बतला या सुना देना। जैसे—उनके कान में भी यह बात डाल दो। (अर्थात् उनसे भी कह दो)। कान में तेल या रूई डालकर बैठना=कोई बात सुनते रहने पर भी उपेक्षापूर्वक उसकी ओर ध्यान न देना। (किसी के) कान में पारा या सीसा भरना=दंड-स्वरूप किसी को बहरा करने के लिए उसके कानों में पारा या गरम सीसा डालना। (प्राचीन काल) (किसी का किसी के) कान लगना=किसी के साथ सदा लगे रहकर चुपके-चुपके उससे तरह-तरह की झूठी सच्ची बातें कहते रहना। (किसी ओर) कान लगाना=कोई बात सुनने के लिए किसी ओर ध्यान देना या प्रवृत्त होना। कान तक न हिलना=चुपचाप सब कुछ सहते हुए तनिक भी प्रतिकार या विरोध न करना। चूँ तक न करना। कान हो जाना-कान खड़े हो जाना। चौकन्ने या सचेत हो जाना। कानोकान खबर न होना=जरा भी खबर न होना। कुछ भी पता न लगना जैसे—घर में चार-चार आदमियों की हत्या हो गई,पर किसी को कानोकान खबर न हुई। कानों पर हाथ धरना या रखना=कानों पर हाथ रखकर किसी बात से अपनी पूरी अनभिज्ञता प्रकट करना। यह सूचित करना कि हम इस संबंध में कुछ भी नहीं जानते अथवा इससे हमारा कुछ भी संबंध नहीं है। पद—कान का कच्चा=ऐसा व्यक्ति जो बहुत सहज में या सुनते ही किसी बात पर विश्वास कर ले। २. सुनने की शक्ति। श्रवण-शक्ति। जैसे—तुम्हें तो कान ही नहीं है तुम सुनोगे क्या। ३. कान के ऊपर पहना जानेवाला एक गहना जिससे कान ढँक जाते हैं। झाँप। ४. किसी चीज में कान की तरह ऊपर उठा या बाहर निकला हुआ उसका कोई अंग या अँश जो प्रायः उस चीज के असम या टेढ़ें होने का सूचक होता है। कनेव। जैसे—चारपाई या चौकी का कान, तराजू का कान (अर्थात् पासंग)। ५. पुरानी चाल की तोपों, बन्दूकों आदि में कुछ ऊपर उठा हुआ और प्याली के आकार का वह गड्ढा जिसमें रंजक रखी जाती थी। प्याली रंजकदानी। पुं० [सं० कर्ण] नाव की पतवार जिसका आकार प्रायः कान का-सा होता है। स्त्री०=कानि (देखें)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानक  : वि० [सं० कनक+अण्] १. कनक-सबंधी। कनक का। २. कनक अर्थात् सोने का बना हुआ। ३. सुनहला। पुं० जमाल गोटा।
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कानकुब्ज  : पुं० =कान्यकुब्ज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानड़ा  : वि०=काना। पुं० =कान्हड़ा। (राग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानन  : पुं० [सं०√कन् (दीप्ति)+णिच्+ल्युट्-अन] १. बहुत बड़ा जंगल या वन। २. घर। मकान। ३. निवास स्थान।
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कानफरेंस  : स्त्री० [अं०] सम्मेलन। (दे०)।
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कानस्टेबुल  : पुं० [अं०] आरक्षी या पुलिस-विभाग का सिपाही।
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काना  : वि० [सं० काण] [स्त्री० कानी] १. (प्राणी) जिसकी कोई आँख खराब या विकृत हो चुकी हो या किसी प्रकार फूट चुकी हो। एकाक्ष। २. (पदार्थ) जो किसी उपयोगी अंग के टूट-फूट जाने के कारण निकम्मा और भद्दा हो गया हो। त्रुटि या दोष से युक्त। जैसे—कानी कौड़ी। ३. (तरकारी या फल) जिसमें ऊपर से छेद कर कीडे़ अंदर घुसे हों अथवा अंदर से बाहर निकले हों। जैसे—काना बैंगन, काना सेब। पद—कान-कुतरा (देखें)। वि० [सं० कर्ण] जिसका कोई कोना या सिरा कान की तरह बाहर निकला हो। जैसे—कानी चारपाई। पुं० [सं० कर्ण] १. लिखने में आकार की मात्रा जो अक्षरों के आगे लगाई जाती है। जैसे—लिखते समय काना-मात्रा ठीक से लगाया करो। २. पासे का वह अंग या पार्श्व जिस पर एक ही बिंदी होती है। ३. पासे का वह दाँव जो उस दशा में आता है जब पासे का वह भाग ऊपर होता है जिस पर एक ही बिंदी होती है। जैसे—हमारे तीन काने हैं, और तुम्हारा पौ बारह है। अव्य=कहाँ (बुंदेल०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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काना-कानी  : स्त्री०=कानाफूसी।
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काना-कुतरा  : वि० [हिं० काना+कुतरना] जो खंडित या विकलांग होने के कारण कुरूप या भद्दा हो। जैसे—काना-कुतरा फल, काना-कुतरा लड़का।
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काना-गोसी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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काना-बाती  : स्त्री० [हिं० कान+बात] १. किसी के कान में चुपके से और धीरे से कही जानेवाली कोई बात। (दे० ‘कानाफूसी’) २. बच्चों को हँसाने के लिए एक प्रकार का विनोद, जिसमें उन्हें कान में बात कहने के बहाने से अपने पास बुलाकर उनके कान में जोर से कुर्र या ऐसा ही और कोई शब्द करते हैं, जिससे उनके कान झन्ना जाते हैं और वे हँसकर दूर हट जाते हैं।
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कानाफुसकी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानाफूसी  : स्त्री० [हिं० कान+अनु,० ‘फुस’ ‘फुस’] १. किसी के कान में बहुत धीरे से इस प्रकार कुछ कहना कि दूसरों को केवल फुस-फुस शब्द होता जान पड़े। २. उक्त प्रकार से होनेवाली बात-चीत, जो दूसरों से छिपा कर और बहुत धीरे-धीरे की जाय।
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कानि  : स्त्री० [?] १. कुल समाज आदि की मर्यादा या लोक-लज्जा का ऐसा ध्यान जो सहसा किसी बुरे काम में न पड़ने दे। लोक-लज्जा। मुहावरा—कानि पड़ना=कुल, समाज आदि की मर्यादा के अनुसार आचरण करना। २. बड़ों का अदब, लिहाज या संकोच। उदाहरण—सेवक सेवकाई जानि जानकीस मानै कानि।—तुलसी।
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कानिष्ठिक  : वि० [सं० कनिष्ठिका+अण्] वय, विस्तार आदि में सब से छोटा। पुं० सब से छोटी उँगली। कनिष्ठिका।
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कानी उँगली  : स्त्री० [सं० कनीनी] सब से छोटी उँगली। कनिष्ठिता।
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कानी हाउस  : पुं० =काँजी हाउस।
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कानी-कौड़ी  : स्त्री० [हिं० कानी+कौड़ी] १. ऐसी कौड़ी जिसे माला में पिरोने के लिए बीच में छेदा गया हो। २. लाक्षणिक अर्थ में बिलकुल नगण्य या परम हीन वस्तु। जैसे—हम अब तुम्हें कानी कौड़ी भी न देंगे।
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कानीन  : पुं० [सं० कन्या+अण्, कनीन आदेश] १. वह व्यक्ति जो कुमारी कन्या के गर्भ से (अर्थात् उसके विवाह के पहले) उत्पन्न हुआ हो। २. राजा कर्ण। (महाभारत)।
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कानून  : पुं० [यू० केनान से अ०, मि० अं० कैनन] [वि० कानूनी] १. किसी काम, बात या व्यवस्था के संबंध में बना हुआ निश्चित नियम। जैसे—कुदरत का कानून २. दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि क्षेत्रों में किसी काल, देश या विषय के सार्विक तथ्यों और सिद्धांतों के आधार पर बने हुए ऐसे निश्चित नियम जो विशिष्ट परिस्थितियों में सदा ठीक घटते हों। ३. देश अथवा राज्य में व्यवस्था, शांति और सुरक्षा बनाये रखने के लिए शासन या प्रभु-सत्ताधारी संस्था के द्वारा बनाया हुआ ऐसा नियम-समूह जिसका पालन वहाँ के सभी निवासियों के लिए अनिवार्य और आवश्यक होता है और जिसकी उपेक्षा या उल्लंघन करने वाला दंड का भागी होता है। आईन। विधि। मुहावरा—कानून छाँटना-झूठ=मूठ के, निस्सार और व्यर्थ के ऐसे तर्क उपस्थित करना, जिनका संबंध नियम, विधान आदि के क्षेत्रों से हो। ४. उक्त प्रकार के बने हुए समस्त नियमों, विधानों आदि का सामूहिक रूप। ५. उक्त प्रकार के नियमों, विधानों आदि का कोई ऐसा अंग या शाखा, जो किसी विशिष्ट कार्य-क्षेत्र या व्यवहार के संबंध में हो। जैसे—दीवानी, कानून फौजदारी कानून, शहादत (गवाही) का कानून आदि। ६. किसी वर्ग या समाज में प्रचलित सर्व-मान्य नियम और रूढ़ियाँ। (लाँ उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा जिसमें बजाने के लिए पटरिओं पर तार लगे होते हैं।
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कानूनगो  : पुं० [फा०] माल या राजस्व विभाग का वह क्षेत्रीय अधिकारी, जिसके अधीन पटवारी या लेखपाल काम करते हैं।
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कानूनदाँ  : पुं० [फा०] प्रायः सब प्रकार के कानून जाननेवाला व्यक्ति। कानून का ज्ञाता। विधिज्ञ।
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कानूनन्  : क्रि० वि० [अ०] विधान या नियम के अनुसार। कानून के मुताबिक।
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कानूनिया  : वि० [अ० कानून] व्यर्थ के कारण बना-बनाकर अथवा कानून और नियम बतला कर झगड़ा या हुज्जत करनेवाला।
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कानूनी  : वि० [अ० कानून] १. कानून संबंधी। कानून का। विधिक। जैसे—कानूनी बहस,कानूनी सलाह। २. व्यर्थ के कारण निकालकर झगड़ा या हुज्जत करनेवाला (व्यक्ति)।
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कान्यकुब्ज  : पुं० [सं० कन्या-कुब्जा, ब० स० कन्यकुब्ज+अण्] १. आधुनिक कन्नौज के आस-पास के प्रदेश का पुराना नाम। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश के निवासी ब्राह्मणों का वर्ग।
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कान्ह  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ड] श्री कृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कान्हड़ा  : पुं० [सं० कणटि] संपूर्ण जाति का एक राग जो मेघ राग का पुत्र माना गया है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कान्हड़ी  : स्त्री० [सं० कर्णाटी] एक रागिनी जो दीपक राग की पत्नी कही गई है।
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कान्हम  : पुं० [सं० कृष्ण, प्रा० कण्ह=काला] भड़ौंच प्रदेश की काली मटियार जमीन जो कपास की खेती के लिए बहुत उपयुक्त है।
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कान्हमी  : स्त्री० [हि० कान्हम] भड़ौच प्रदेश की कान्हम भूमि में उपजनेवाली कपास।
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कान्हर  : पुं० [सं० कर्ण] कोल्हू के कातर पर लगी हुई वह बेड़ी लकड़ी जो कोल्हू की कमर से लगकर चारों ओर घूमती है। पुं० [सं० कृष्ण] श्रीकृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कान्हरा  : पुं० =कान्हड़ा।
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